Samaysar (Hindi). Kalash: 172.

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कहानजैनशास्त्रमाला ]
बन्ध अधिकार
३९९
पुण्यं, विपच्यमानदुःखादिपापाध्यवसानेन पापमात्मानं कुर्यात् तथैव च ज्ञायमानधर्माध्यवसानेन
धर्मं, ज्ञायमानाधर्माध्यवसानेनाधर्मं, ज्ञायमानजीवान्तराध्यवसानेन जीवान्तरं, ज्ञायमानपुद्गलाध्यव-
सानेन पुद्गलं, ज्ञायमानलोकाकाशाध्यवसानेन लोकाकाशं, ज्ञायमानालोकाकाशाध्यवसानेना-
लोकाकाशमात्मानं कुर्यात्
(इन्द्रवज्रा)
विश्वाद्विभक्तोऽपि हि यत्प्रभावा-
दात्मानमात्मा विदधाति विश्वम्
मोहैककन्दोऽध्यवसाय एष
नास्तीह येषां यतयस्त एव
।।१७२।।
पुण्यरूप करता है, और उदयमें आते हुए दुःख आदि पापके अध्यवसानसे अपनेको पापरूप करता
है, और इसीप्रकार जाननेमें आता हुआ जो धर्म (धर्मास्तिकाय) है उसके अध्यवसानसे अपनेको
धर्मरूप करता है, जाननेमें आते हुवे अधर्मके (-अधर्मास्तिकायके) अध्यवसानसे अपनेको
अधर्मरूप करता है, जाननेमें आते हुवे अन्य जीवके अध्यवसानसे अपनेको अन्यजीवरूप करता
है, जाननेमें आते हुवे पुद्गलके अध्यवसानसे अपनेको पुद्गलरूप करता है, जाननेमें आते हुवे
लोकाकाशके अध्यवसानसे अपनेको लोकाकाशरूप करता है, और जाननेमें आते हुवे
अलोकाकाशके अध्यवसानसे अपनेको अलोकाकाशरूप करता है, (इसप्रकार आत्मा
अध्यवसानसे अपनेको सर्वरूप करता है
)
भावार्थ :यह अध्यवसान अज्ञानरूप है, इसलिये उसे अपना परमार्थस्वरूप नहीं
जानना चाहिए उस अध्यवसानसे ही आत्मा अपनेको अनेक अवस्थारूप करता है अर्थात्
उनमें अपनापन मानकर प्रवर्तता है ।।२६८-२६९।।
अब इस अर्थका कलशरूप तथा आगामी कथनका सूचक काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ :[विश्वात् विभक्तः अपि हि ] विश्वसे (समस्त द्रव्योंसे) भिन्न होने
पर भी [आत्मा ] आत्मा [यत्-प्रभावात् आत्मानम् विश्वम् विदधाति ] जिसके प्रभावसे
अपनेको विश्वरूप करता है [एषः अध्यवसायः ] ऐसा यह अध्यवसाय
[मोह-एक-कन्दः ]
कि जिसका मोह ही एक मूल है वह[येषां इह नास्ति ] जिनके नहीं है [ते एव यतयः ]
वे ही मुनिे हैं ।१७२।
यह अध्यवसाय जिनके नहीं हैं वे मुनि कर्मसे लिप्त नहीं होतेयह अब गाथा द्वारा
कहते हैं :