यथायमेवं क्रियागर्भहिंसाध्यवसानेन हिंसकं, इतराध्यवसानैरितरं च आत्मात्मानं कुर्यात्, तथा विपच्यमाननारकाध्यवसानेन नारकं, विपच्यमानतिर्यगध्यवसानेन तिर्यंच, विपच्यमान- मनुष्याध्यवसानेन मनुष्यं, विपच्यमानदेवाध्यवसानेन देवं, विपच्यमानसुखादिपुण्याध्यवसानेन
गाथार्थ : — [जीवः ] जीव [अध्यवसानेन ] अध्यवसानसे [तिर्यङ्नैरयिकान् ] तिर्यंच, नारक , [देवमनुजान् च ] देव और मनुष्य [सर्वान् ] इन सर्व पर्यायों, [च ] तथा [नैकविधम् ] अनेक प्रकारके [पुण्यं पापं ] पुण्य और पाप — [सर्वान् ] इन सबरूप [करोति ] अपनेको करता है । [तथा च ] और उसीप्रकार [जीवः ] जीव [अध्यवसानेन ] अध्यवसानसे [धर्माधर्मं ] धर्म- अधर्म, [जीवाजीवौ ] जीव-अजीव [च ] और [अलोकलोकं ] लोक -अलोक — [सर्वान् ] इन सबरूप [आत्मानम् करोति ] अपनेको करता है ।
टीका : — जैसे यह आत्मा पूर्वोक्त प्रकार १क्रिया जिसका गर्भ है ऐसे हिंसाके अध्यवसानसे अपनेको हिंसक करता है, (अहिंसाके अध्यवसानसे अपनेको अहिंसक करता है ) और अन्य अध्यवसानोंसे अपनेको अन्य करता है, इसीप्रकार उदयमें आते हुए नारकके अध्यवसानसे अपनेको नारकी करता है, उदयमें आते हुए तिर्यंचके अध्यवसानसे अपनेको तिर्यंच करता है, उदयमें आते हुए मनुष्यके अध्यवसानसे अपनेको मनुष्य करता है, उदयमें आते हुए देवके अध्यवसानसे अपनेको देव करता है, उदयमें आते हुए सुख आदि पुण्यके अध्यवसानसे अपनेको १हिंसा आदिके अध्यवसान राग-द्वेषके उदयमय हनन आदिकी क्रियाओंसे भरे हुए हैं, अर्थात् उन क्रियाओंके साथ आत्माकी तन्मयता होनेकी मान्यतारूप हैं ।