Samaysar (Hindi). Gatha: 268 Kalash: 171.

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कहानजैनशास्त्रमाला ]
बन्ध अधिकार
३९७
न मुच्यते; सरागवीतरागयोः स्वपरिणामयोः सद्भावात्तस्याध्यवसायस्याभावेऽपि बध्यते, मुच्यते च
ततः परत्राकिंचित्करत्वान्नेदमध्यवसानं स्वार्थक्रियाकारि; ततश्च मिथ्यैवेति भावः
(अनुष्टुभ्)
अनेनाध्यवसायेन निष्फलेन विमोहितः
तत्किञ्चनापि नैवास्ति नात्मात्मानं करोति यत् ।।१७१।।
सव्वे करेदि जीवो अज्झवसाणेण तिरियणेरइए
देवमणुए य सव्वे पुण्णं पावं च णेयविहं ।।२६८।।
परिणामके सद्भावसे, उस अध्यवसायका अभाव होने पर भी, बँधता है, छूटता है इसलिये परमें
अकिंचित्कर होनेसे (अर्थात् कुछ नहीं कर सकता होनेसे) यह अध्यवसान अपनी अर्थक्रिया
करनेवाला नहीं है; और इसलिये मिथ्या ही है
ऐसा भाव (आशय) है
भावार्थ :जो हेतु कुछ भी नहीं करता वह अकिंचित्कर कहलाता है यह बाँधने-
छोड़नेका अध्यवसान भी परमें कुछ नहीं करता; क्योंकि यदि वह अध्यवसान न हो तो भी जीव
अपने सराग-वीतराग परिणामसे बन्ध-मोक्षको प्राप्त होता है, और वह अध्यवसान हो तो भी अपने
सराग-वीतराग परिणामके अभावसे बन्ध-मोक्षको प्राप्त नहीं होता
इसप्रकार अध्यवसान परमें
अकिंचित्कर होनेसे स्व-अर्थक्रिया करनेवाला नहीं है और इसलिये मिथ्या है ।।२६७।।
अब इस अर्थका कलशरूप और आगामी कथनका सूचक श्लोक कहते हैं :
श्लोकार्थ :[अनेन निष्फलेन अध्यवसायेन मोहितः ] इस निष्फल (निरर्थक)
अध्यवसायसे मोहित होता हुआ [आत्मा ] आत्मा [तत् किञ्चन अपि न एव अस्ति यत् आत्मानं
न करोति ]
अपनेको सर्वरूप क रता है,
ऐसा कुछ भी नहीं है जिसरूप अपनेको न करता हो
भावार्थ :यह आत्मा मिथ्या अभिप्रायसे भूला हुआ चतुर्गति-संसारमें जितनी अवस्थाएँ
हैं, जितने पदार्थ हैं उन सर्वरूप अपनेको हुआ मानता है; अपने शुद्ध स्वरूपको नहीं
पहिचानता
।१७१।
अब इस अर्थको स्पष्टतया गाथामें कहते हैं :
तिर्यंच, नारक, देव, मानव, पुण्य-पाप अनेक जे
उन सर्वरूप करै जु निजको, जीव अध्यवसानसे ।।२६८।।