यत्किल बन्धयामि मोचयामीत्यध्यवसानं तस्य हि स्वार्थक्रिया यद्बन्धनं मोचनं जीवानाम् । जीवस्त्वस्याध्यवसायस्य सद्भावेऽपि सरागवीतरागयोः स्वपरिणामयोः अभावान्न बध्यते, अर्थक्रिया करनेवाला नहीं है इसलिए, ‘मैं आकाश-पुष्पको तोड़ता हूँ’ ऐसे अध्यवसानकी भाँति मिथ्यारूप है, मात्र अपने अनर्थके लिये ही है (अर्थात् मात्र अपने लिये ही हानिका कारण होता है, परका तो कुछ कर नहीं सकता ) ।
भावार्थ : — जो अपनी अर्थक्रिया ( – प्रयोजनभूत क्रिया) नहीं कर सकता वह निरर्थक है, अथवा जिसका विषय नहीं है वह निरर्थक है । जीव परजीवोंको दुःखी-सुखी आदि करनेकी बुद्धि करता है, परन्तु परजीव अपने किये दुःखी-सुखी नहीं होते; इसलिए वह बुद्धि निरर्थक है और निरर्थक होनेसे मिथ्या है — झूँठी है ।।२६६।।
अब यह प्रश्न होता है कि अध्यवसान अपनी अर्थक्रिया करनेवाला कैसे नहीं है ? इसका उत्तर कहते हैं : —
गाथार्थ : — हे भाई ! [यदि हि ] यदि वास्तवमें [अध्यवसाननिमित्तं ] अध्यवसानके निमित्तसे [जीवाः ] जीव [कर्मणा बध्यन्ते ] क र्मसे बन्धते हैं [च ] और [मोक्षमार्गे स्थिताः ] मोक्षमार्गमें स्थित [मुच्यन्ते ] छूटते हैं, [तद् ] तो [त्वम् किं करोषि ] तू क्या करता है ? (तेरा तो बाँधने-छोड़नेका अभिप्राय व्यर्थ गया ।)
टीका : — ‘मैं बँधाता हूँ, छुड़ाता हूँ’ ऐसा जो अध्यवसान उसकी अपनी अर्थक्रिया जीवोंको बाँधना, छोड़ना है । किन्तु जीव तो, इस अध्यवसायका सद्भाव होने पर भी, अपने सराग-वीतराग परिणामके अभावसे नहीं बँधता, नहीं मुक्त होता; तथा अपने सराग-वीतराग