कहानजैनशास्त्रमाला ]
बन्ध अधिकार
३९५
एवं बन्धहेतुत्वेन निर्धारितस्याध्यवसानस्य स्वार्थक्रियाकारित्वाभावेन मिथ्यात्वं
दर्शयति —
दुक्खिदसुहिदे जीवे करेमि बंधेमि तह विमोचेमि ।
जा एसा मूढमदी णिरत्थया सा हु दे मिच्छा ।।२६६।।
दुःखितसुखितान् जीवान् करोमि बन्धयामि तथा विमोचयामि ।
या एषा मूढमतिः निरर्थिका सा खलु ते मिथ्या ।।२६६।।
परान् जीवान् दुःखयामि सुखयामीत्यादि, बन्धयामि मोचयामीत्यादि वा, यदेतदध्यवसानं
तत्सर्वमपि, परभावस्य परस्मिन्नव्याप्रियमाणत्वेन स्वार्थक्रियाकारित्वाभावात्, खकुसुमं
कारणाभास कहते हैं ।) कोई मुनि ईर्यासमितिपूर्वक यत्नसे गमन करते हों और उनके पैरके नीचे
कोई उड़ता हुआ जीव वेगपूर्वक आ गिरे तथा मर जाये तो मुनिको हिंसा नहीं लगती । यहाँ यदि
बाह्यदृष्टिसे देखा जाये तो हिंसा हुई है, परन्तु मुनिके हिंसाका अध्यवसाय नहीं होनेसे उन्हें बन्ध
नहीं होता । जैसे पैरके नीचे आकर मर जानेवाला जीव मुनिके बन्धका कारण नहीं है, उसीप्रकार
अन्य बाह्यवस्तुओंके सम्बन्धमें भी समझना चाहिए । इसप्रकार बाह्यवस्तुको बन्धका कारण माननेमें
व्यभिचार आता है, इसलिये बाह्यवस्तु बन्धका कारण नहीं है यह सिद्ध हुआ । और बाह्यवस्तु बिना
निराश्रयसे अध्यवसान नहीं होते, इसलिये बाह्यवस्तुका निषेध भी है ही ।।२६५।।
इसप्रकार बन्धके कारणरूपसे निश्चित किया गया अध्यवसान अपनी अर्थक्रिया करनेवाला
न होनेसे मिथ्या है — यह अब बतलाते हैं : —
करता दुखी-सुखि जीवको, अरु बद्ध-मुक्त करूँ अरे !
यह मूढ मति तुझ है निरर्थक, इस हि से मिथ्या हि है ।।२६६।।
गाथार्थ : — हे भाई ! ‘[जीवान् ] मैं जीवोंको [दुःखितसुखितान् ] दुःखी-सुखी
[करोमि ] करता हूँ, [बन्धयामि ] बन्धाता हूँ [तथा विमोचयामि ] तथा छुड़ाता हूँ, [या एषा ते
मूढमतिः ] ऐसी जो यह तेरी मूढ मति ( – मोहित बुद्धि) है [सा ] वह [निरर्थिका ] निरर्थक होनेसे
[खलु ] वास्तवमें [मिथ्या ] मिथ्या है ।
टीका : — मैं पर जीवोंको दुःखी करता हूँ, सुखी करता हूँ इत्यादि तथा बँधाता हूँ, छुड़ाता
हूँ इत्यादि जो यह अध्यवसान है वह सब ही, परभावका परमें व्यापार न होनेके कारण अपनी