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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
वीरसूसुतं हिनस्मीत्यध्यवसायो जायते तथा वन्ध्यासुतस्याश्रयभूतस्यासद्भावेऽपि वन्ध्यासुतं
हिनस्मीत्यध्यवसायो जायेत । न च जायते । ततो निराश्रयं नास्त्यध्यवसानमिति नियमः । तत
एव चाध्यवसानाश्रयभूतस्य बाह्यवस्तुनोऽत्यन्तप्रतिषेधः, हेतुप्रतिषेधेनैव हेतुमत्प्रतिषेधात् । न च
बन्धहेतुहेतुत्वे सत्यपि बाह्यवस्तु बन्धहेतुः स्यात्, ईर्यासमितिपरिणतयतीन्द्रपदव्यापाद्यमान-
वेगापतत्कालचोदितकुलिंगवत्, बाह्यवस्तुनो बन्धहेतुहेतोरबन्धहेतुत्वेन बन्धहेतुत्वस्यानैकांतिक-
त्वात् । अतो न बाह्यवस्तु जीवस्यातद्भावो बन्धहेतुः, अध्यवसानमेव तस्य तद्भावो बन्धहेतुः ।
स्वरूपको प्राप्त नहीं होता अर्थात् उत्पन्न नहीं होता । यदि बाह्यवस्तुके आश्रयके बिना भी
अध्यवसान उत्पन्न होता हो तो, जैसे आश्रयभूत वीरजननीके पुत्रके सद्भावमें (किसीको) ऐसा
अध्यवसाय उत्पन्न होता है कि ‘मैं वीरजननीके पुत्रको मारता हूँ’ इसीप्रकार आश्रयभूत
बँध्यापुत्रके असद्भावमें भी (किसीको) ऐसा अध्यवसाय उत्पन्न होना चाहिए कि ‘मैं
बँध्यापुत्रको मारता हूँ’ । परन्तु ऐसा अध्यवसाय तो (किसीको) उत्पन्न नहीं होता । (जहाँ
बँध्याका पुत्र ही नहीं होता वहाँ मारनेका अध्यवसाय कहाँसे उत्पन्न होगा ?) इसलिये यह नियम
है कि (बाह्यवस्तुरूप) आश्रयके बिना अध्यवसान नहीं होता । और इसीलिये अध्यवसानको
आश्रयभूत बाह्यवस्तुका अत्यन्त निषेध किया है, क्योंकि कारणके प्रतिषेधसे ही कार्यका प्रतिषेध
होता है । (बाह्यवस्तु अध्यवसानका कारण है, इसलिये उसके प्रतिषेधसे अध्यवसानका प्रतिषेध
होता है) । परन्तु, यद्यपि बाह्यवस्तु बन्धके कारणका (अर्थात् अध्यवसानका) कारण है तथापि
वह (बाह्यवस्तु) बन्धका कारण नहीं है; क्योंकि ईर्यासमितिमें परिणमित मुनीन्द्रके चरणसे मर
जानेवाले – ऐसे किसी वेगसे आपतित कालप्रेरित उड़ते हुए जीवकी भाँति, बाह्यवस्तु – जो कि
बन्धके कारणका कारण है वह — बन्धका कारण न होनेसे, बाह्यवस्तुको बन्धका कारणत्व
माननेमें अनैकान्तिक हेत्वाभासत्व है — व्यभिचार आता है । (इसप्रकार निश्चयसे बाह्यवस्तुको
बन्धका कारणत्व निर्बाधतया सिद्ध नहीं होता ।) इसलिये बाह्यवस्तु जो कि जीवको
अतद्भावरूप है वह बन्धका कारण नहीं है; किन्तु अध्यवसान जो कि जीवको तद्भावरूप है
वहीं बन्धका कारण है ।
भावार्थ : — बन्धका कारण निश्चयसे अध्यवसान ही है; और बाह्यवस्तुएँ हैं वे
अध्यवसानका आलम्बन हैं — उनको अवलम्बकर अध्यवसान उत्पन्न होता है, इसलिये उन्हें
अध्यवसानका कारण कहा जाता है । बाह्यवस्तुके बिना निराश्रयतया अध्यवसान उत्पन्न नहीं होते,
इसलिये बाह्यवस्तुओंका त्याग कराया जाता है । यदि बाह्यवस्तुओंको बन्धका कारण कहा जाये
तो उसमें व्यभिचार (दोष) आता है । (कारण होने पर भी कहीं कार्य दिखाई देता है और कहीं
नहीं दिखाई देता, उसे व्यभिचार कहते हैं और ऐसे कारणको व्यभिचारी — अनैकान्तिक —