अध्यवसानमेव बन्धहेतुः, न तु बाह्यवस्तु, तस्य बन्धहेतोरध्यवसानस्य हेतुत्वेनैव चरितार्थत्वात् । तर्हि किमर्थो बाह्यवस्तुप्रतिषेधः ? अध्यवसानप्रतिषेधार्थः । अध्यवसानस्य हि बाह्यवस्तु आश्रयभूतं; न हि बाह्यवस्त्वनाश्रित्य अध्यवसानमात्मानं लभते । यदि बाह्यवस्त्वनाश्रित्यापि अध्यवसानं जायेत तदा, यथा वीरसूसुतस्याश्रयभूतस्य सद्भावे
और भी ऐसी शंका न करनी कि ‘बाह्यवस्तु वह दूसरा भी बन्धका कारण होगा’ । (‘अध्यवसाय बन्धका एक कारण होगा और बाह्यवस्तु बन्धका दूसरा कारण होगा’ ऐसी भी शंका करने योग्य नहीं है; अध्यवसाय ही एकमात्र बन्धका कारण है, बाह्यवस्तु नहीं ।) इसी अर्थकी गाथा अब कहते हैं : —
गाथार्थ : — [पुनः ] और, [जीवानाम् ] जीवोंके [यत् ] जो [अध्यवसानं तु ] अध्यवसान [भवति ] होता है वह [वस्तु ] वस्तुको [प्रतीत्य ] अवलम्बकर होता है, [च तु ] तथापि [वस्तुतः ] वस्तुसे [न बन्धः ] बन्ध नहीं होता, [अध्यवसानेन ] अध्यवसानसे ही [बन्धः अस्ति ] बन्ध होता है ।
टीका : — अध्यवसान ही बन्धका कारण है; बाह्य वस्तु नहीं, क्योंकि बन्धका कारण जो अध्यवसान है उसके कारणत्वसे ही बाह्यवस्तुकी चरितार्थता है (अर्थात् बन्धके कारणभूत अध्यवसानका कारण होनेमें ही बाह्यवस्तुका कार्यक्षेत्र पूरा हो जाता है, वह वस्तु बन्धका कारण नहीं होती) । यहाँ प्रश्न होता है कि — यदि बाह्यवस्तु बन्धका कारण नहीं है तो (‘बाह्यवस्तुका प्रसंग मत करो, किंतु त्याग करो’ इसप्रकार) बाह्यवस्तुका निषेध किसलिये किया जाता है ? इसका समाधान इसप्रकार है : — अध्यवसानके निषेधके लिये बाह्यवस्तुका निषेध किया जाता है । अध्यवसानको बाह्यवस्तु आश्रयभूत है; बाह्यवस्तुका आश्रय किये बिना अध्यवसान अपने