एवमयमज्ञानात् यो यथा हिंसायां विधीयतेऽध्यवसायः, तथा असत्यादत्ताब्रह्म- परिग्रहेषु यश्च विधीयते स सर्वोऽपि केवल एव पापबन्धहेतुः । यस्तु अहिंसायां यथा विधीयतेऽध्यवसायः, तथा यश्च सत्यदत्तब्रह्मापरिग्रहेषु विधीयते स सर्वोऽपि केवल एव पुण्यबन्धहेतुः ।
गाथार्थ : — [एवम् ] इसीप्रकार (जैसा कि पहले हिंसाके अध्यवसायके सम्बन्धमें कहा गया है उसीप्रकार) [अलीके ] असत्यमें, [अदत्ते ] चोरीमें, [अब्रह्मचर्ये ] अब्रह्मचर्यमें [च एव ] और [परिग्रहे ] परिग्रहमें [यत् ] जो [अध्यवसानं ] अध्यवसान [क्रियते ] किया जाता है [तेन तु ] उससे [पापं बध्यते ] पापका बन्ध होता है; [तथापि च ] और इसीप्रकार [सत्ये ] सत्यमें, [दत्ते ] अचौर्यमें, [ब्रह्मणि ] ब्रह्मचर्यमें [च एव ] और [अपरिग्रहत्वे ] अपरिग्रहमें [यत् ] जो [अध्यवसानं ] अध्यवसान [क्रियते ] किया जाता है [तेन तु ] उससे [पुण्यं बध्यते ] पुण्यका बन्ध होता है
टीका : — इसप्रकार ( – पूर्वोक्त प्रकार) अज्ञानसे यह जो हिंसामें अध्यवसाय किया जाता है उसीप्रकार असत्य, चोरी, अब्रह्मचर्य और परिग्रहमें भी जो (अध्यवसाय) किया जाता है, वह सब ही पापबन्धका एकमात्र कारण है; और जो अहिंसामें अध्यवसाय किया जाता है उसीप्रकार सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रहमें भी (अध्यवसाय) किया जाये, वह सब ही पुण्यबन्धका एकमात्र कारण है ।
भावार्थ : — जैसे हिंसामें अध्यवसाय पापबन्धका कारण कहा है, उसीप्रकार असत्य, चोरी, अब्रह्मचर्य और परिग्रहमें अध्यवसाय भी पापबन्धका कारण है । जैसे अहिंसामें अध्यवसाय पुण्यबन्धका कारण है; उसीप्रकार सत्य, अचौर्य ( – दिया हुआ लेना वह), ब्रह्मचर्य और अपरिग्रहमें अध्यवसाय भी पुण्यबन्धका कारण है । इसप्रकार, पाँच पापोंमें (अव्रतोंमें) अध्यवसाय किया जाये सो पापबन्धका कारण है और पाँच (एकदेश या सर्वदेश) व्रतोंमें अध्यवसाय किया जाये सो पुण्यबन्धका कारण है । पाप और पुण्य दोनोंके बन्धनमें, अध्यवसाय ही एकमात्र बन्धका कारण है ।।२६३-२६४।।