परजीवानां स्वकर्मोदयवैचित्र्यवशेन प्राणव्यपरोपः कदाचिद्भवतु, कदाचिन्मा भवतु, य एव हिनस्मीत्यहंकाररसनिर्भरो हिंसायामध्यवसायः स एव निश्चयतस्तस्य बन्धहेतुः, निश्चयेन परभावस्य प्राणव्यपरोपस्य परेण कर्तुमशक्यत्वात् ।
टीका : — परजीवोंको अपने कर्मोदयकी विचित्रतावश प्राणोंका व्यपरोप ( – उच्छेद, वियोग) कदाचित् हो, कदाचित् न हो, — किन्तु ‘मैं मारता हूँ’ ऐसा अहंकाररससे भरा हुआ हिंसाका अध्यवसाय ही निश्चयसे उसके (हिंसाका अध्यवसाय करनेवाले जीवको) बन्धका कारण है, क्योंकि निश्चयसे परका भाव जो प्राणोंका व्यपरोप वह दूसरेसे किया जाना अशक्य है (अर्थात् वह परसे नहीं किया जा सकता) ।
भावार्थ : — निश्चयनयसे दूसरेके प्राणोंका वियोग दूसरेसे नहीं किया जा सकता; वह उसके अपने कर्मोंके उदयकी विचित्रताके कारण कदाचित् होता है और कदाचित् नहीं होता । इसलिये जो यह मानता है — अहंकार करता है कि — ‘मैं परजीवको मारता हूँ’, उसका यह अहंकाररूप अध्यवसाय अज्ञानमय है । वह अध्यवसाय ही हिंसा है — अपने विशुद्ध चैतन्यप्राणका घात है, और वही बन्धका कारण है । यह निश्चयनयका मत है ।
यहाँ व्यवहारनयको गौण करके कहा है ऐसा जानना चाहिए । इसलिये वह कथन कथंचित् (अपेक्षापूर्वक) है ऐसा समझना चाहिए; सर्वथा एकान्तपक्ष मिथ्यात्व है ।।२६२।।
अब, (हिंसा-अहिंसाकी भाँति सर्व कार्योंमें) अध्यवसायको ही पाप-पुण्यके बन्धके कारणरूपसे दिखाते हैं : —