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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
धारणीयम् । न च पुण्यपापत्वेन द्वित्वाद्बन्धस्य तद्धेत्वन्तरमन्वेष्टव्यं; एकेनैवानेनाध्यवसायेन
दुःखयामि मारयामीति, सुखयामि जीवयामीति च द्विधा शुभाशुभाहंकाररसनिर्भरतया द्वयोरपि
पुण्यपापयोर्बन्धहेतुत्वस्याविरोधात् ।
एवं हि हिंसाध्यवसाय एव हिंसेत्यायातम् —
अज्झवसिदेण बंधो सत्ते मारेउ मा व मारेउ ।
एसो बंधसमासो जीवाणं णिच्छयणयस्स ।।२६२।।
अध्यवसितेन बन्धः सत्त्वान् मारयतु मा वा मारयतु ।
एष बन्धसमासो जीवानां निश्चयनयस्य ।।२६२।।
बन्धका कारण है यह भलीभाँति निश्चित करना चाहिए । और पुण्य-पापरूपसे बन्धका द्वित्व (दो-
पनाँ) होनेसे बन्धके कारणका भेद नहीं ढूँढ़ना चाहिए (अर्थात् यह नहीं मानना चाहिए कि
पुण्यबन्धका कारण दूसरा है और पापबन्धका कारण कोई दूसरा है); क्योंकि यह एक ही
अध्यवसाय ‘दुःखी करता हूँ, मारता हूँ’ इसप्रकार और ‘सुखी करता हूँ, जिलाता हूँ’ यों दो प्रकारसे
शुभ-अशुभ अहंकारसे भरा हुआ होनेसे पुण्य और पाप — दोनोंके बन्धका कारण होनेमें अविरोध
है (अर्थात् एक ही अध्यवसायसे पुण्य और पाप – दोनोंका बन्ध होनेमें कोई विरोध नहीं है) ।
भावार्थ : — यह अज्ञानमय अध्यवसाय ही बन्धका कारण है । उसमें, ‘मैं जिलाता हूँ, सुखी
करता हूँ’ ऐसे शुभ अहंकारसे भरा हुआ वह शुभ अध्यवसाय है और ‘मैं मारता हूँ, दुःखी करता
हूँ’ ऐसे अशुभ अहंकारसे भरा हुआ वह अशुभ अध्यवसाय है । अहंकाररूप मिथ्याभाव दोनोंमें है;
इसलिये अज्ञानमयतासे दोनों अध्यवसाय एक ही हैं । अतः यह न मानना चाहिये कि पुण्यका कारण
दूसरा है और पापका कारण कोई अन्य । अज्ञानमय अध्यवसाय ही दोनोंका कारण है ।२६०-२६१।
‘इसप्रकार वास्तवमें हिंसाका अध्यवसाय ही हिंसा है यह फलित हुआ’ — यह कहते
हैं : —
मारो — न मारो जीवको, है बन्ध अध्यवसानसे ।
— यह आतमाके बन्धका, संक्षेप निश्चयनय विषे ।।२६२।।
गाथार्थ : — [सत्त्वान् ] जीवोंको [मारयतु ] मारो [वा मा मारयतु ] अथवा न मारो —
[बन्धः ] क र्मबन्ध [अध्यवसितेन ] अध्यवसानसे ही होता है । [एषः ] यह, [निश्चयनयस्य ]
निश्चयनयसे, [जीवानां ] जीवोंके [बन्धसमासः ] बन्धका संक्षेप है ।