कहानजैनशास्त्रमाला ]
बन्ध अधिकार
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कीदृशौ प्रतिषेध्यप्रतिषेधकौ व्यवहारनिश्चयनयाविति चेत् —
आयारादी णाणं जीवादी दंसणं च विण्णेयं ।
छज्जीवणिकं च तहा भणदि चरित्तं तु ववहारो ।।२७६।।
आदा खु मज्झ णाणं आदा मे दंसणं चरित्तं च ।
आदा पच्चक्खाणं आदा मे संवरो जोगो ।।२७७।।
आचारादि ज्ञानं जीवादि दर्शनं च विज्ञेयम् ।
षड्जीवनिकायं च तथा भणति चरित्रं तु व्यवहारः ।।२७६।।
आत्मा खलु मम ज्ञानमात्मा मे दर्शनं चरित्रं च ।
आत्मा प्रत्याख्यानमात्मा मे संवरो योगः ।।२७७।।
आचारादिशब्दश्रुतं ज्ञानस्याश्रयत्वाज्ज्ञानं, जीवादयो नवपदार्था दर्शनस्याश्रय-
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अब यह प्रश्न होता है कि ‘‘निश्चयनयके द्वारा निषेध्य व्यवहारनय, और व्यवहारनयका
निषेधक निश्चयनय वे दोनों नय कैसे हैं ?’’ अतः व्यवहार और निश्चयका स्वरूप कहते हैं —
‘आचार’ आदिक ज्ञान है, जीवादि दर्शन जानना ।
षट्जीवकाय चरित्र है, — यह कथन नय व्यवहारका ।।२७६।।
मुझ आत्म निश्चय ज्ञान है, मुझ आत्म दर्शन चरित है ।
मुझ आत्म प्रत्याख्यान अरु, मुझ आत्म संवर-योग है ।।२७७।।
गाथार्थ : — [आचारादि ] आचाराँगादि शास्त्र [ज्ञानं ] ज्ञान है, [जीवादि ] जीवादि तत्त्व
[दर्शनं विज्ञेयम् च ] दर्शन जानना चाहिए [च ] तथा [षड्जीवनिकायं ] छ जीव-निकाय
[चरित्रं ] चारित्र है — [तथा तु ] ऐसा तो [व्यवहारः भणति ] व्यवहारनय कहता है ।
[खलु ] निश्चयसे [मम आत्मा ] मेरा आत्मा ही [ज्ञानम् ] ज्ञान है, [मे आत्मा ] मेरा
आत्मा ही [दर्शनं चरित्रं च ] दर्शन और चारित्र है, [आत्मा ] मेरा आत्मा ही [प्रत्याख्यानम् ]
प्रत्याख्यान है, [मे आत्मा ] मेरा आत्मा ही [संवरः योगः ] संवर और योग ( – समाधि, ध्यान)
है ।
टीका : — आचाराँगादि शब्दश्रुत ज्ञान है, क्योंकि वह (शब्दश्रुत) ज्ञानका आश्रय है,