तत्सद्भावेऽप्यभव्यानां शुद्धात्माभावेन दर्शनस्याभावात्; न च षड्जीवनिकायः चारित्रस्याश्रयः,
तत्सद्भावेऽप्यभव्यानां शुद्धात्माभावेन चारित्रस्याभावात् । शुद्ध आत्मैव ज्ञानस्याश्रयः,
जीवादिपदार्थसद्भावेऽसद्भावे वा तत्सद्भावेनैव दर्शनस्य सद्भावात्; शुद्ध आत्मैव चारित्रस्याश्रयः,
चारित्र है, क्योंकि वह (छह जीवनिकाय) चारित्रका आश्रय है; इसप्रकार व्यवहार है । शुद्ध
वह दर्शनका आश्रय है और शुद्ध आत्मा चारित्र है, क्योंकि वह चारित्रका आश्रय है; इसप्रकार
निश्चय है । इनमें, व्यवहारनय प्रतिषेध्य अर्थात् निषेध्य है, क्योंकि आचारांगादिको ज्ञानादिका
प्रतिषेध्य है;) और निश्चयनय व्यवहारनयका प्रतिषेधक है, क्योंकि शुद्ध आत्माके ज्ञानादिका
आश्रयत्व ऐकान्तिक है । (शुद्ध आत्माको ज्ञानादिका आश्रय माननेमें व्यभिचार नहीं है, क्योंकि
आचारांगादि शब्दश्रुत एकान्तसे ज्ञानका आश्रय नहीं है, क्योंकि उसके (अर्थात् शब्दश्रुतके) सद्भावमें भी अभव्योंको शुद्ध आत्माके अभावके कारण ज्ञानका अभाव है; जीवादि नवपदार्थ दर्शनके आश्रय नहीं हैं, क्योंकि उनके सद्भावमें भी अभव्योंको शुद्ध आत्माके अभावके कारण दर्शनका अभाव है; छह जीव-निकाय चारित्रके आश्रय नहीं हैं, क्योंकि उनके सद्भावमें भी अभव्योंको शुद्ध आत्माके अभावके कारण चारित्रका अभाव है । शुद्ध आत्मा ही ज्ञानका आश्रय है, क्योंकि आचारांगादि शब्दश्रुतके सद्भावमें या असद्भावमें उसके ( – शुद्ध आत्माके) सद्भावसे ही ज्ञानका सद्भाव है; शुद्ध आत्मा ही दर्शनका आश्रय है, क्योंकि जीवादि नवपदार्थोंके सद्भावमें या असद्भावमें उसके (-शुद्ध आत्माके) सद्भावसे ही दर्शनका