कहानजैनशास्त्रमाला ]
बन्ध अधिकार
४११
षड्जीवनिकायसद्भावेऽसद्भावे वा तत्सद्भावेनैव चारित्रस्य सद्भावात् ।
(उपजाति)
रागादयो बन्धनिदानमुक्ता-
स्ते शुद्धचिन्मात्रमहोऽतिरिक्ताः ।
आत्मा परो वा किमु तन्निमित्त-
मिति प्रणुन्नाः पुनरेवमाहुः ।।१७४।।
जह फलिहमणी सुद्धो ण सयं परिणमदि रागमादीहिं ।
रंगिज्जदि अण्णेहिं दु सो रत्तादीहिं दव्वेहिं ।।२७८।।
सद्भाव है; शुद्ध आत्मा ही चारित्रका आश्रय है, क्योंकि छह जीव-निकायके सद्भावमें या
असद्भावमें उसके ( – शुद्ध आत्माके) सद्भावसे ही चारित्रका सद्भाव है ।
भावार्थ : — आचारांगादि शब्दश्रुतका ज्ञान, जीवादि नव पदार्थोंका श्रद्धान तथा छहकायके
जीवोंकी रक्षा — इन सबके होते हुए भी अभव्यके ज्ञान, दर्शन, चारित्र नहीं होते, इसलिये
व्यवहारनय तो निषेध्य है; और जहाँ शुद्धात्मा होता है वहाँ ज्ञान, दर्शन, चारित्र होते ही हैं, इसलिये
निश्चयनय व्यवहारका निषेधक है । अतः शुद्धनय उपादेय कहा गया है ।।२७६-२७७।।
अब आगामी कथनका सूचक काव्य कहते हैं : —
श्लोकार्थ : — ‘‘[रागादयः बन्धनिदानम् उक्ताः ] रागादिको बन्धका कारण क हा और [ते
शुद्ध-चिन्मात्र-महः-अतिरिक्ताः ] उन्हें शुद्धचैतन्यमात्र ज्योतिसे ( – अर्थात् आत्मासे) भिन्न क हा;
[तद्-निमित्तम् ] तब फि र उस रागादिका निमित्त [किमु आत्मा वा परः ] आत्मा है या कोई
अन्य ?’’ [इति प्रणुन्नाः पुनः एवम् आहुः ] इसप्रकार (शिष्यके) प्रश्नसे प्रेरित होते हुए
आचार्यभगवान पुनः इसप्रकार (निम्नप्रकारसे) क हते हैं ।१७४।
उपरोक्त प्रश्नके उत्तररूपमें आचार्यदेव कहते हैं : —
ज्यों फटिकमणि है शुद्ध, आप न रक्तरूप जु परिणमे ।
पर अन्य रक्त पदार्थसे, रक्तादिरूप जु परिणमे ।।२७८।।