स्ते शुद्धचिन्मात्रमहोऽतिरिक्ताः ।
मिति प्रणुन्नाः पुनरेवमाहुः ।।१७४।।
असद्भावमें उसके ( – शुद्ध आत्माके) सद्भावसे ही चारित्रका सद्भाव है ।
भावार्थ : — आचारांगादि शब्दश्रुतका ज्ञान, जीवादि नव पदार्थोंका श्रद्धान तथा छहकायके जीवोंकी रक्षा — इन सबके होते हुए भी अभव्यके ज्ञान, दर्शन, चारित्र नहीं होते, इसलिये व्यवहारनय तो निषेध्य है; और जहाँ शुद्धात्मा होता है वहाँ ज्ञान, दर्शन, चारित्र होते ही हैं, इसलिये निश्चयनय व्यवहारका निषेधक है । अतः शुद्धनय उपादेय कहा गया है ।।२७६-२७७।।
श्लोकार्थ : — ‘‘[रागादयः बन्धनिदानम् उक्ताः ] रागादिको बन्धका कारण क हा और [ते शुद्ध-चिन्मात्र-महः-अतिरिक्ताः ] उन्हें शुद्धचैतन्यमात्र ज्योतिसे ( – अर्थात् आत्मासे) भिन्न क हा; [तद्-निमित्तम् ] तब फि र उस रागादिका निमित्त [किमु आत्मा वा परः ] आत्मा है या कोई अन्य ?’’ [इति प्रणुन्नाः पुनः एवम् आहुः ] इसप्रकार (शिष्यके) प्रश्नसे प्रेरित होते हुए आचार्यभगवान पुनः इसप्रकार (निम्नप्रकारसे) क हते हैं ।१७४।