यथोक्तं वस्तुस्वभावं जानन् ज्ञानी शुद्धस्वभावादेव न प्रच्यवते, ततो रागद्वेषमोहादि- भावैः स्वयं न परिणमते, न परेणापि परिणम्यते, ततष्टंकोत्कीर्णैकज्ञायकभावो ज्ञानी रागद्वेषमोहादिभावानामकर्तैवेति प्रतिनियमः ।
श्लोकार्थ : — [इति स्वं वस्तुस्वभावं ज्ञानी जानाति ] ज्ञानी ऐसे अपने वस्तुस्वभावको जानता है, [तेन सः रागादीन् आत्मनः न कुर्यात् ] इसलिये वह रागादिको निजरूप नहीं करता, [अतः कारकः न भवति ] अतः वह (रागादिका) क र्ता नहीं है ।१७६।
गाथार्थ : — [ज्ञानी ] ज्ञानी [रागद्वेषमोहं ] राग-द्वेष-मोहको [वा कषायभावं ] अथवा क षायभावको [स्वयम् ] अपने आप [आत्मनः ] अपनेमें [न च करोति ] नहीं करता, [तेन ] इसलिये [सः ] वह, [तेषां भावानाम् ] उन भावोंका [कारकः न ] कारक अर्थात् क र्ता नहीं है ।
टीका : — यथोक्त (अर्थात् जैसा कहा वैसे) वस्तुस्वभावको जानता हुआ ज्ञानी (अपने) शुद्धस्वभावसे ही च्युत नहीं होता, इसलिये वह राग-द्वेष-मोह आदि भावोंरूप स्वतः परिणमित नहीं होता और दूसरेके द्वारा भी परिणमित नहीं किया जाता, इसलिये टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावस्वरूप ज्ञानी राग-द्वेष-मोह आदि भावोंका अकर्ता ही है — ऐसा नियम है ।
भावार्थ : — आत्मा जब ज्ञानी हुआ तब उसने वस्तुका ऐसा स्वभाव जाना कि ‘आत्मा स्वयं तो शुद्ध ही है — द्रव्यदृष्टिसे अपरिणमनस्वरूप है, पर्यायदृष्टिसे परद्रव्यके निमित्तसे रागादिरूप परिणमित होता है’; इसलिये अब ज्ञानी स्वयं उन भावोंका कर्ता नहीं