यथोक्तं वस्तुस्वभावमजानंस्त्वज्ञानी शुद्धस्वभावादासंसारं प्रच्युत एव, ततः कर्म- विपाकप्रभवै रागद्वेषमोहादिभावैः परिणममानोऽज्ञानी रागद्वेषमोहादिभावानां कर्ता भवन् बध्यत एवेति प्रतिनियमः । होता, जो उदय आते हैं उनका ज्ञाता ही होता है ।।२८०।।
‘अज्ञानी ऐसे वस्तुस्वभावको नहीं जानता, इसलिये वह रागादि भावोंका कर्ता होता है’ इस अर्थका, आगामी गाथाका सूचक श्लोक कहते हैं : —
श्लोकार्थ : — [इति स्वं वस्तुस्वभावं अज्ञानी न वेत्ति ] अज्ञानी अपने ऐसे वस्तुस्वभावको नहीं जानता, [तेन सः रागादीन् आत्मनः कुर्यात् ] इसलिये वह रागादिको ( – रागादिभावोंको) अपना करता है, [अतः कारकः भवति ] अतः वह उनका क र्ता होता है ।१७७।
गाथार्थ : — [रागे च द्वेषे च कषायकर्मसु च एव ] राग, द्वेष और क षायक र्मों होने पर (अर्थात् उनके उदय होने पर) [ये भावाः ] जो भाव होते हैं, [तैः तु ] उन रूप [परिणममानः ] परिणमित होता हुआ अज्ञानी [रागादीन् ] रागादिको [पुनः अपि ] पुनः पुनः [बध्नाति ] बाँधता है ।
टीका : — यथोक्त वस्तुस्वभावको न जानता हुआ अज्ञानी अनादि संसारसे लेकर (अपने) शुद्धस्वभावसे च्युत ही है, इसलिये कर्मोदयसे उत्पन्न रागद्वेषमोहादि भावोंरूप परिणमता हुआ अज्ञानी रागद्वेषमोहादि भावोंका कर्ता होता हुआ (कर्मोंसे) बद्ध होता ही है — ऐसा नियम है ।