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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
ततः स्थितमेतत् —
रागम्हि य दोसम्हि य कसायकम्मेसु चेव जे भावा ।
तेहिं दु परिणमंतो रागादी बंधदे चेदा ।।२८२।।
रागे च द्वेषे च कषायकर्मसु चैव ये भावाः ।
तैस्तु परिणममानो रागादीन् बध्नाति चेतयिता ।।२८२।।
य इमे किलाज्ञानिनः पुद्गलकर्मनिमित्ता रागद्वेषमोहादिपरिणामास्त एव भूयो
रागद्वेषमोहादिपरिणामनिमित्तस्य पुद्गलकर्मणो बन्धहेतुरिति ।
कथमात्मा रागादीनामकारक एवेति चेत् —
भावार्थ : — अज्ञानी वस्तुस्वभावको तो यथार्थ नहीं जानता और कर्मोदयसे दो भाव होते
हैं उन्हें अपना समझकर परिणमता है, इसलिये वह उनका कर्ता होता हुआ पुनः पुनः आगामी
कर्मोंको बाँधता है — ऐसा नियम है ।।२८१।।
‘‘अतः यह सिद्ध हुआ (अर्थात् पूर्वोक्त कारणसे निम्नप्रकार निश्चित हुआ)’’ ऐसा अब
कहते हैं : —
यों राग-द्वेष-कषायकर्मनिमित्त होवें भाव जो ।
उन-रूप आत्मा परिणमें, वह बाँधता रागादिको ।।२८२।।
गाथार्थ : — [रागे च द्वेषे च कषायकर्मसु च एव ] राग, द्वेष और क षायक र्मोंके होने पर
(अर्थात् उनके उदय होने पर) [ये भावाः ] जो भाव होते हैं, [तैः तु ] उन-रूप [परिणममानः ]
परिणमता हुआ [चेतयिता ] आत्मा [रागादीन् ] रागादिको [बध्नाति ] बाँधता है ।
टीका : — निश्चयसे अज्ञानीको, पुद्गलकर्म जिनका निमित्त है ऐसे जो यह
रागद्वेषमोहादि परिणाम हैं, वे ही पुनः रागद्वेषमोहादि परिणामका निमित्त जो पुद्गलकर्म उसके
बन्धके कारण है ।
भावार्थ : — अज्ञानीके कर्मके निमित्तसे रागद्वेषमोहादि परिणाम होते हैं वे ही पुनः
आगामी कर्मबन्धके कारण होते हैं ।।२८२।।
अब प्रश्न होता है कि आत्मा रागादिका अकारक ही कैसे है ? इसका समाधान (आगमका
प्रमाण देकर ) करते हैं : —