तन्मूलां बहुभावसन्ततिमिमामुद्धर्तुकामः समम् ।
येनोन्मूलितबन्ध एष भगवानात्मात्मनि स्फू र्जति ।।१७८।।
भावार्थ : — यहाँ अधःकर्म और उद्देशिक आहारके दृष्टान्तसे द्रव्य और भावकी निमित्त- नैमित्तिकता दृढ़ की है ।
जिस पापकर्मसे आहार निष्पन्न हो उस पापकर्मको अधःकर्म कहते हैं, तथा उस आहारको भी अधःकर्म कहते हैं । जो आहार, ग्रहण करनेवालेके निमित्तसे ही बनाया गया हो उसे उद्देशिक कहते हैं । ऐसे (अधःकर्म और उद्देशिक) आहारका जिसने प्रत्याख्यान नहीं किया उसने उसके निमित्तसे होनेवाले भावका प्रत्याख्यान नहीं किया और जिसने तत्त्वज्ञानपूर्वक उस आहारका प्रत्याख्यान किया है उसने उसके निमित्तसे होनेवाले भावका प्रत्याख्यान किया है । इसप्रकार समस्त द्रव्यको और भावको निमित्त-नैमित्तिकभाव जानना चाहिये । जो परद्रव्यको ग्रहण करता है उसे रागादिभाव भी होते हैं, वह उनका कर्ता भी होता है और इसलिये कर्मका बन्ध भी करता है; जब आत्मा ज्ञानी होता है तब उसे कुछ ग्रहण करनेका राग नहीं होता, इसलिये रागादिरूप परिणमन भी नहीं होता और इसलिये आगामी बन्ध भी नहीं होता । (इसप्रकार ज्ञानी परद्रव्यका कर्ता नहीं है ।)।।२८६-२८७।।
श्लोकार्थ : — [इति ] इसप्रकार (परद्रव्य और अपने भावकी निमित्त-नैमित्तिक ताको) [आलोच्य ] विचार करके, [तद्-मूलां इमाम् बहुभावसन्ततिम् समम् उद्धर्तुकामः ]