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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
आधाकम्मं उद्देसियं च पोग्गलमयं इमं दव्वं ।
कह तं मम होदि कयं जं णिच्चमचेदणं वुत्तं ।।२८७।।
अधःकर्माद्याः पुद्गलद्रव्यस्य य इमे दोषाः ।
कथं तान् करोति ज्ञानी परद्रव्यगुणास्तु ये नित्यम् ।।२८६।।
अधःकर्मोद्देशिकं च पुद्गलमयमिदं द्रव्यं ।
कथं तन्मम भवति कृतं यन्नित्यमचेतनमुक्तम् ।।२८७।।
यथाधःकर्मनिष्पन्नमुद्देशनिष्पन्नं च पुद्गलद्रव्यं निमित्तभूतमप्रत्याचक्षाणो नैमित्तिकभूतं
बन्धसाधकं भावं न प्रत्याचष्टे, तथा समस्तमपि परद्रव्यमप्रत्याचक्षाणस्तन्निमित्तकं भावं न
प्रत्याचष्टे । यथा चाधःकर्मादीन् पुद्गलद्रव्यदोषान्न नाम करोत्यात्मा परद्रव्यपरिणामत्वे सति
आत्मकार्यत्वाभावात्, ततोऽधःकर्मोद्देशिकं च पुद्गलद्रव्यं न मम कार्यं नित्यमचेतनत्वे सति
उद्देशि त्योंही अधःकर्मी पौद्गलिक यह द्रव्य जो ।
कैसे हि मुझकृत होय नित्य अजीव वर्णा जिसहिको ।।२८७।।
गाथार्थ : — [अधःकर्माद्याः ये इमे ] अधःक र्म आदि जो यह [पुद्गलद्रव्यस्य दोषाः ]
पुद्गलद्रव्यके दोष हैं (उनको ज्ञानी अर्थात् आत्मा क रता नहीं है;) [तान् ] उनको [ज्ञानी ] ज्ञानी
अर्थात् आत्मा [कथं करोति ] कैसे क रे [ये तु ] कि जो [नित्यम् ] सदा [परद्रव्यगुणाः ]
परद्रव्यके गुण है ?
इसलिये [अधःकर्म उद्देशिकं च ] अधःक र्म और उद्देशिक [इदं ] ऐसा [पुद्गलमयम् द्रव्यं ]
पुद्गलमय द्रव्य है (वह मेरा किया नहीं होता;) [तत् ] वह [मम कृ तं ] मेरा किया [कथं
भवति ] कैसे हो [यत् ] कि जो [नित्यम् ] सदा [अचेतनम् उक्त म् ] अचेतन क हा गया है ?
टीका : — जैसे अधःकर्मसे निष्पन्न और उद्देशसे निष्पन्न हुए निमित्तभूत (आहारादि)
पुद्गलद्रव्यका प्रत्याख्यान न करता हुआ आत्मा ( – मुनि) नैमित्तिकभूत बन्धसाधक भावका
प्रत्याख्यान (त्याग) नहीं करता, इसीप्रकार समस्त परद्रव्यका प्रत्याख्यान न करता हुआ आत्मा
उसके निमित्तसे होनेवाले भावको नहीं त्यागता । और ‘‘अधःकर्म आदि पुद्गलद्रव्यके दोषोंको
आत्मा वास्तवमें नहीं करता, क्योंकि वे परद्रव्यके परिणाम हैं, इसलिये उन्हें आत्माके कार्यत्वका
अभाव है; अतः अधःकर्म और उद्देशिक पुद्गलद्रव्य मेरा कार्य नहीं है, क्योंकि वह नित्य अचेतन