यथाधःकर्मनिष्पन्नमुद्देशनिष्पन्नं च पुद्गलद्रव्यं निमित्तभूतमप्रत्याचक्षाणो नैमित्तिकभूतं बन्धसाधकं भावं न प्रत्याचष्टे, तथा समस्तमपि परद्रव्यमप्रत्याचक्षाणस्तन्निमित्तकं भावं न प्रत्याचष्टे । यथा चाधःकर्मादीन् पुद्गलद्रव्यदोषान्न नाम करोत्यात्मा परद्रव्यपरिणामत्वे सति आत्मकार्यत्वाभावात्, ततोऽधःकर्मोद्देशिकं च पुद्गलद्रव्यं न मम कार्यं नित्यमचेतनत्वे सति
गाथार्थ : — [अधःकर्माद्याः ये इमे ] अधःक र्म आदि जो यह [पुद्गलद्रव्यस्य दोषाः ] पुद्गलद्रव्यके दोष हैं (उनको ज्ञानी अर्थात् आत्मा क रता नहीं है;) [तान् ] उनको [ज्ञानी ] ज्ञानी अर्थात् आत्मा [कथं करोति ] कैसे क रे [ये तु ] कि जो [नित्यम् ] सदा [परद्रव्यगुणाः ] परद्रव्यके गुण है ?
इसलिये [अधःकर्म उद्देशिकं च ] अधःक र्म और उद्देशिक [इदं ] ऐसा [पुद्गलमयम् द्रव्यं ] पुद्गलमय द्रव्य है (वह मेरा किया नहीं होता;) [तत् ] वह [मम कृ तं ] मेरा किया [कथं भवति ] कैसे हो [यत् ] कि जो [नित्यम् ] सदा [अचेतनम् उक्त म् ] अचेतन क हा गया है ?
टीका : — जैसे अधःकर्मसे निष्पन्न और उद्देशसे निष्पन्न हुए निमित्तभूत (आहारादि) पुद्गलद्रव्यका प्रत्याख्यान न करता हुआ आत्मा ( – मुनि) नैमित्तिकभूत बन्धसाधक भावका प्रत्याख्यान (त्याग) नहीं करता, इसीप्रकार समस्त परद्रव्यका प्रत्याख्यान न करता हुआ आत्मा उसके निमित्तसे होनेवाले भावको नहीं त्यागता । और ‘‘अधःकर्म आदि पुद्गलद्रव्यके दोषोंको आत्मा वास्तवमें नहीं करता, क्योंकि वे परद्रव्यके परिणाम हैं, इसलिये उन्हें आत्माके कार्यत्वका अभाव है; अतः अधःकर्म और उद्देशिक पुद्गलद्रव्य मेरा कार्य नहीं है, क्योंकि वह नित्य अचेतन