प्रतिक्रमण तथा प्रत्याख्यान करता है, और जब भावका प्रतिक्रमण तथा प्रत्याख्यान करता है तब वह साक्षात् अकर्ता ही है ।
भावार्थ : — अतीत कालमें जिन परद्रव्योंका ग्रहण किया था उन्हें वर्तमानमें अच्छा समझना, उनके संस्कार रहना, उनके प्रति ममत्व रहना, वह द्रव्य-अप्रतिक्रमण है और उन परद्रव्योंके निमित्तसे जो रागादिभाव हुए थे उन्हें वर्तमानमें अच्छा जानना, उनके संस्कार रहना, उनके प्रति ममत्व रहना, भाव-अप्रतिक्रमण है । इसी प्रकार आगामी काल सम्बन्धी परद्रव्योंकी इच्छा रखना, ममत्व रखना, द्रव्य अप्रत्याख्यान है और उन परद्रव्योंके निमित्तसे आगामी कालमें होनेवाले रागादिभावोंकी इच्छा रखना, ममत्व रखना, भाव अप्रत्याख्यान है । इसप्रकार द्रव्य- अप्रतिक्रमण और भाव-अप्रतिक्रमण तथा द्रव्य-अप्रत्याख्यान और भाव-अप्रत्याख्यान — ऐसा जो अप्रतिक्रमण और अप्रत्याख्यानका दो प्रकारसे उपदेश है, वह द्रव्यभावके निमित्त-नैमित्तिकभावको बतलाता है । इससे यह सिद्ध हुआ कि — परद्रव्य तो निमित्त है और रागादिभाव नैमित्तिक हैं । इसप्रकार आत्मा रागादिभावोंको स्वयमेव न करनेसे रागादिभावोंका अकर्ता ही है ऐसा सिद्ध हुआ । इसप्रकार यद्यपि यह आत्मा रागादिभावोंका अकर्ता ही है तथापि जब तक उसके निमित्तभूत परद्रव्यके अप्रतिक्रमण-अप्रत्याख्यान हैं तब तक उसके रागादिभावोंके अप्रतिक्रमण-अप्रत्याख्यान हैं, और जब तक रागादिभावोंके अप्रतिक्रमण-अप्रत्याख्यान हैं तब तक वह रागादिभावोंका कर्ता ही है; जब वह निमित्तभूत परद्रव्यके प्रतिक्रमण-प्रत्याख्यान करता है तब उसके नैमित्तिक रागादिभावोंके भी प्रतिक्रमण-प्रत्याख्यान हो जाते हैं, और जब रागादिभावोंके प्रतिक्रमण- प्रत्याख्यान हो जाते हैं तब वह साक्षात् अकर्ता ही है ।।२८३ से २८५।।