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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
आत्मबन्धयोर्द्विधाकरणं मोक्षः । बन्धस्वरूपज्ञानमात्रं तद्धेतुरित्येके, तदसत्; न कर्मबद्धस्य
बन्धस्वरूपज्ञानमात्रं मोक्षहेतुः, अहेतुत्वात्, निगडादिबद्धस्य बन्धस्वरूपज्ञानमात्रवत् । एतेन
कर्मबन्धप्रपंचरचनापरिज्ञानमात्रसन्तुष्टा उत्थाप्यन्ते ।
जह बंधे चिंतंतो बंधणबद्धो ण पावदि विमोक्खं ।
तह बंधे चिंतंतो जीवो वि ण पावदि विमोक्खं ।।२९१।।
गाथार्थ : — [यथा नाम ] जैसे [बन्धनके ] बन्धनमें [चिरकालप्रतिबद्धः ] बहुत समयसे
बँधा हुआ [कश्चित् पुरुषः ] कोई पुरुष [तस्य ] उस बन्धनके [तीव्रमन्दस्वभावं ] तीव्र-मन्द
स्वभावको [कालं च ] और कालको (अर्थात् यह बन्धन इतने कालसे है इसप्रकार) [विजानाति ]
जानता है, [यदि ] किन्तु यदि [न अपि छेदं करोति ] उस बन्धनको स्वयं नहीं काटता [तेन न
मुच्यते ] तो वह उससे मुक्त नहीं होता [तु ] और [बन्धनवशः सन् ] बन्धनवश रहता हुआ
[बहुकेन अपि कालेन ] बहुत कालमें भी [सः नरः ] वह पुरुष [विमोक्षम् न प्राप्नोति ] बन्धनसे
छूटनेरूप मुक्तिको प्राप्त नहीं करता; [इति ] इसीप्रकार जीव [कर्मबन्धनानां ] क र्म-बन्धनोंके
[प्रदेशस्थितिप्रकृतिम् एवम् अनुभागम् ] प्रदेश, स्थिति, प्रकृ ति और अनुभागको [जानन् अपि ]
जानता हुआ भी [न मुच्यते ] (क र्मबन्धसे) नहीं छूटता, [च यदि सः एव शुद्धः ] किन्तु यदि
वह स्वयं (रागादिको दूर क रके) शुद्ध होता है [मुच्यते ] तभी छूटता है-मुक्त होता है ।
टीका : — आत्मा और बन्धका द्विधाकरण (अर्थात् आत्मा और बन्धको अलग अलग
कर देना) सो मोक्ष है । कितने ही लोग कहते हैं कि ‘बन्धके स्वरूपका ज्ञानमात्र मोक्षका कारण
है (अर्थात् बन्धके स्वरूपको जाननेमात्रसे ही मोक्ष होता है)’, किन्तु यह असत् है; कर्मसे बँधे
हुए (जीव)को बन्धके स्वरूपका ज्ञानमात्र मोक्षका कारण नहीं है, क्योंकि जैसे बेड़ी आदिसे बँधे
हुए (जीव)को बन्धके स्वरूपका ज्ञानमात्र बन्धसे मुक्त होनेका कारण नहीं है । उसीप्रकार कर्मसे
बँधे हुए (जीव)को कर्मबन्धके स्वरूपका ज्ञानमात्र कर्मबन्धसे मुक्त होनेका कारण नहीं है । इस
कथनसे उनका उत्थापन (खण्डन) किया गया है जो कर्मबन्धके प्रपंचकी (-विस्तारकी) रचनाके
ज्ञानमात्रसे सन्तुष्ट हो रहे हैं ।
भावार्थ : — कोई अन्यमती यह मानते हैं कि बन्धके स्वरूपको जान लेनेसे ही मोक्ष हो
जाता है । उनकी इस मान्यताका इस कथनसे निराकरण कर दिया गया है । जाननेमात्रसे ही बन्ध
नहीं कट जाता, किन्तु वह काटनेसे ही कटता है ।।२८८ से २९०।।
अब यह कहते हैं कि बन्धके विचार करते रहनेसे भी बन्ध नहीं कटता : —
जो बन्धनोंसे बद्ध वह नहिं बन्धचिन्तासे छुटे ।
त्यों जीव भी इन बन्धको चिन्ता करे से नहिं छुटे ।।२९१।।