य एव निर्विकारचैतन्यचमत्कारमात्रमात्मस्वभावं तद्विकारकारकं बन्धानां च स्वभावं विज्ञाय बन्धेभ्यो विरमति, स एव सकलकर्ममोक्षं कुर्यात् । एतेनात्मबन्धयोर्द्विधाकरणस्य मोक्षहेतुत्वं नियम्यते ।
टीका : — जो, निर्विकारचैतन्यचमत्कारमात्र आत्मस्वभावको और उस (आत्मा) के विकार करनेवाले बन्धोंके स्वभावको जानकर, बन्धोंसे विरक्त होता है, वही समस्त कर्मोंसे मुक्त होता है । इस(कथन)से ऐसा नियम किया जाता है कि आत्मा और बन्धका द्विधाकरण (पृथक्करण) ही मोक्षका कारण है (अर्थात् आत्मा और बन्धको भिन्न-भिन्न करना ही मोक्षका कारण है ऐसा निर्णीत किया जाता है) ।।२९३।।
‘आत्मा और बन्ध किस(साधन)के द्वारा द्विधा (अलग) किये जाते हैं ?’ ऐसा प्रश्न होने पर उत्तर देते हैं : —
गाथार्थ : — [जीवः च तथा बन्धः ] जीव तथा बन्ध [नियताभ्याम् स्वलक्षणाभ्यां ] नियत स्वलक्षणोंसे (अपने-अपने निश्चित लक्षणोंसे) [छिद्येते ] छेदे जाते हैं; [प्रज्ञाछेदनकेन ] प्रज्ञारूप छेनीके द्वारा [छिन्नौ तु ] छेदे जाने पर [नानात्वम् आपन्नौ ] वे नानापनको प्राप्त होते हैं अर्थात् अलग हो जाते हैं ।
टीका : — आत्मा और बन्धको द्विधा करनेरूप कार्यमें कर्ता जो आत्मा उसके १करण सम्बन्धी २मीसांसा करने पर, निश्चयतः (निश्चयनयसे) अपनेसे भिन्न करणका अभाव होनेसे १करण = साधन; करण नामका कारक । २मीमांसा = गहरी विचारणा; तपास; समालोचना ।