लक्षणसूक्ष्मान्तःसन्धिसावधाननिपातनादिति बुध्येमहि । आत्मनो हि समस्तशेषद्रव्यासाधारणत्वा-
समस्तसहक्रमप्रवृत्तानन्तपर्यायाविनाभावित्वाच्चैतन्यस्य चिन्मात्र एवात्मा निश्चेतव्यः, इति यावत् ।
आत्मा और बन्धको द्विधा किया जाता है (अर्थात् प्रज्ञारूप करण द्वारा ही आत्मा और बन्ध जुदे
किये जाते हैं) ।
(यहाँ प्रश्न होता है कि – ) आत्मा और बन्ध जो कि १चेत्यचेतकभावके द्वारा अत्यन्त निकटताके कारण एक ( – एक जैसे – ) हो रहे हैं, और भेदविज्ञानके अभावके कारण, मानो वे एक चेतक ही हों ऐसा जिनका व्यवहार किया जाता है (अर्थात् जिन्हें एक आत्माके रूपमें ही व्यवहारमें माना जाता है) उन्हें प्रज्ञाके द्वारा वास्तवमें कैसे छेदा जा सकता है ?
(इसका समाधान करते हुए आचार्यदेव कहते हैं : — ) आत्मा और बन्धके नियत स्वलक्षणोंकी सूक्ष्म अन्तःसंधिमें (अन्तरंगकी संधिमें) प्रज्ञाछेनीको सावधान होकर पटकनेसे ( – डालनेसे, मारनेसे) उनको छेदा जा सकता है अर्थात् उन्हें अलग किया जा सकता है, ऐसा हम जानते हैं ।
आत्माका स्वलक्षण चैतन्य है, क्योंकि वह समस्त शेष द्रव्योंसे असाधारण है ( – वह अन्य द्रव्योंमें नहीं है) । वह (चैतन्य) प्रवर्तमान होता हुआ जिस-जिस पर्यायको व्याप्त होकर प्रवर्तता है और निवर्तमान होता हुआ जिस-जिस पर्यायको ग्रहण करके निवर्तता है वे समस्त सहवर्ती या क्रमवर्ती पर्यायें आत्मा हैं, इसप्रकार लक्षित करना ( – लक्षणसे पहचानना) चाहिये, (अर्थात् जिन -जिन गुणपर्यायोंमें चैतन्यलक्षण व्याप्त होता है; वे सब गुणपर्यायें आत्मा हैं ऐसा जानना चाहिए) क्योंकि आत्मा उसी एक लक्षणसे लक्ष्य है (अर्थात् चैतन्यलक्षणसे ही पहिचाना जाता है) । और समस्त सहवर्ती तथा क्रमवर्ती अनन्त पर्यायोंके साथ चैतन्यका अविनाभावीपना होनेसे चिन्मात्र ही आत्मा है ऐसा निश्चय करना चाहिए । इतना आत्माके स्वलक्षणके सम्बन्धमें है । १आत्मा चेतक है और बन्ध चैत्य है; वे दोनों अज्ञानदशामें एकसे अनुभवमें आते हैं ।