चैतन्यस्यात्मलाभसम्भावनात् । यत्तु रागादीनां चैतन्येन सहैवोत्प्लवनं तच्चेत्यचेतकभावप्रत्यासत्तेरेव,
चेतकतामेव प्रथयेत्, न पुना रागादिताम् । एवमपि तयोरत्यन्तप्रत्यासत्त्या भेदसम्भावना-
(अब बन्धके स्वलक्षणके सम्बन्धमें कहते हैं : — ) बन्धका स्वलक्षण तो आत्मद्रव्यसे असाधारण ऐसे रागादिक हैं । यह रागादिक आत्मद्रव्यके साथ साधारणता धारण करते हुए प्रतिभासित नहीं होते, क्योंकि वे सदा चैतन्यचमत्कारसे भिन्नरूप प्रतिभासित होते हैं । और जितना, चैतन्य आत्माकी समस्त पर्यायोंमें व्याप्त होता हुआ प्रतिभासित होता है, उतने ही, रागादिक प्रतिभासित नहीं होते, क्योंकि रागादिके बिना भी चैतन्यका आत्मलाभ संभव है (अर्थात् जहाँ रागादि न हों वहाँ भी चैतन्य होता है) । और जो, रागादिकी चैतन्यके साथ ही उत्पत्ति होती है वह चैत्यचेतकभाव (-ज्ञेयज्ञायकभाव)की अति निकटताके कारण ही है, एकद्रव्यत्वके कारण नहीं; जैसे (दीपकके द्वारा) प्रकाशित किये जानेवाले घटादिक (पदार्थ) दीपकके प्रकाशकत्वको ही प्रसिद्ध करते हैं — घटादित्वको नहीं, इसप्रकार (आत्माके द्वारा) चेतित होनेवाले रागादिक (अर्थात् ज्ञानमें ज्ञेयरूपसे ज्ञात होनेवाले रागादिक भाव) आत्माके चेतकत्वको ही प्रसिद्ध करते हैं — रागादिकत्वको नहीं ।
ऐसा होने पर भी उन दोनों (-आत्मा और बन्ध)की अत्यन्त निकटताके कारण भेदसंभावनाका अभाव होनेसे अर्थात् भेद दिखाई न देनेसे (अज्ञानीको) अनादिकालसे एकत्वका व्यामोह (भ्रम) है; वह व्यामोह प्रज्ञा द्वारा ही अवश्य छेदा जाता है ।
भावार्थ : — आत्मा और बन्ध दोनोंको लक्षणभेदसे पहचान कर बुद्धिरूप छेनीसे छेदकर भिन्न-भिन्न करना चाहिए ।
आत्मा तो अमूर्तिक है और बन्ध सूक्ष्म पुद्गलपरमाणुओंका स्कन्ध है, इसलिये छद्मस्थके ज्ञानमें दोनों भिन्न प्रतीत नहीं होते, मात्र एक स्कन्ध ही दिखाई देता है; (अर्थात् दोनों एक पिण्डरूप दिखाई देते हैं ) इसलिये अनादि अज्ञान है । श्री गुरुओंका उपदेश प्राप्त करके उनके लक्षण भिन्न-भिन्न अनुभव करके जानना चाहिए कि चैतन्यमात्र तो आत्माका लक्षण है और रागादिक बन्धका लक्षण है, तथापि मात्र ज्ञेयज्ञायकभावकी अति निकटतासे वे एक जैसे ही