Samaysar (Hindi). Kalash: 181.

< Previous Page   Next Page >


Page 432 of 642
PDF/HTML Page 465 of 675

 

background image
४३२
समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
(स्रग्धरा)
प्रज्ञाछेत्री शितेयं कथमपि निपुणैः पातिता सावधानैः
सूक्ष्मेऽन्तःसन्धिबन्धे निपतति रभसादात्मकर्मोभयस्य
आत्मानं मग्नमन्तःस्थिरविशदलसद्धाम्नि चैतन्यपूरे
बन्धं चाज्ञानभावे नियमितमभितः कुर्वती भिन्नभिन्नौ
।।१८१।।
दिखाई देते हैं इसलिये तीक्ष्ण बुद्धिरूप छेनीकोजो कि उन्हें भेदकर भिन्न-भिन्न करनेका
शस्त्र है उसेउनकी सूक्ष्म संधिको ढूँढकर उसमें सावधान (निष्प्रमाद) होकर पटकना चाहिए
उसके पड़ते ही दोनों भिन्न-भिन्न दिखाई देने लगते हैं और ऐसा होने पर, आत्माको ज्ञानभावमें
ही और बन्धको अज्ञानभावमें रखना चाहिए इसप्रकार दोनोंको भिन्न करना चाहिए ।।२९४।।
अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ :[इयं शिता प्रज्ञाछेत्री ] यह प्रज्ञारूप तीक्ष्ण छैनी [निपुणैः ] प्रवीण
पुरुषोंके द्वारा [कथम् अपि ] किसी भी प्रकारसे (यत्नपूर्वक ) [सावधानैः ] सावधानतया
(निष्प्रमादतया) [पातिता ] पटक ने पर, [आत्म-कर्म-उभयस्य सूक्ष्मे अन्तःसन्धिबन्धे ] आत्मा
और क र्म
दोनोंके सूक्ष्म अन्तरंगमें सन्धिके बन्धमें [रभसात् ] शीघ्र [निपतति ] पड़ती है
किस प्रकार पड़ती है? [आत्मानम् अन्तः-स्थिर-विशद-लसद्-धाम्नि चैतन्यपूरे मग्नम् ] वह
आत्माको तो जिसका तेज अन्तरंगमें स्थिर और निर्मलतया देदीप्यमान है, ऐसे चैतन्यप्रवाहमें
मग्न क रती हुई [च ] और [बन्धम् अज्ञानभावे नियमितम् ] बन्धको अज्ञानभावमें निश्चल
(नियत) क रती हुई
[अभितः भिन्नभिन्नौ कुर्वती ] इसप्रकार आत्मा और बन्धको सर्वतः
भिन्न-भिन्न क रती हुई पड़ती है
भावार्थ :यहाँ आत्मा और बन्धको भिन्न-भिन्न करनेरूप कार्य है उसका कर्ता
आत्मा है वहाँ करणके बिना कर्ता किसके द्वारा कार्य करेगा ? इसलिये करण भी आवश्यक
है निश्चयनयसे कर्तासे करण भिन्न नहीं होता; इसलिये आत्मासे अभिन्न ऐसी यह बुद्धि ही
इस कार्यमें करण है आत्माके अनादि बन्ध ज्ञानावरणादि कर्म है, इसका कार्य भावबन्ध तो
रागादिक है तथा नोकर्म शरीरादिक है इसलिये बुद्धिके द्वारा आत्माको शरीरसे, ज्ञानावरणादिक
द्रव्यकर्मसे तथा रागादिक भावकर्मसे भिन्न एक चैतन्यभावमात्र अनुभव कर ज्ञानमें ही लीन
रखना सो यही (आत्मा और बन्धको) भिन्न करना है
इसीसे सर्व कर्मोंका नाश होता है,
सिद्धपदकी प्राप्ति होती है, ऐसा जानना चाहिए ।१८१।