सूक्ष्मेऽन्तःसन्धिबन्धे निपतति रभसादात्मकर्मोभयस्य ।
बन्धं चाज्ञानभावे नियमितमभितः कुर्वती भिन्नभिन्नौ ।।१८१।।
श्लोकार्थ : — [इयं शिता प्रज्ञाछेत्री ] यह प्रज्ञारूप तीक्ष्ण छैनी [निपुणैः ] प्रवीण पुरुषोंके द्वारा [कथम् अपि ] किसी भी प्रकारसे ( – यत्नपूर्वक ) [सावधानैः ] सावधानतया (निष्प्रमादतया) [पातिता ] पटक ने पर, [आत्म-कर्म-उभयस्य सूक्ष्मे अन्तःसन्धिबन्धे ] आत्मा और क र्म — दोनोंके सूक्ष्म अन्तरंगमें सन्धिके बन्धमें [रभसात् ] शीघ्र [निपतति ] पड़ती है । किस प्रकार पड़ती है? [आत्मानम् अन्तः-स्थिर-विशद-लसद्-धाम्नि चैतन्यपूरे मग्नम् ] वह आत्माको तो जिसका तेज अन्तरंगमें स्थिर और निर्मलतया देदीप्यमान है, ऐसे चैतन्यप्रवाहमें मग्न क रती हुई [च ] और [बन्धम् अज्ञानभावे नियमितम् ] बन्धको अज्ञानभावमें निश्चल (नियत) क रती हुई — [अभितः भिन्नभिन्नौ कुर्वती ] इसप्रकार आत्मा और बन्धको सर्वतः भिन्न-भिन्न क रती हुई पड़ती है ।
भावार्थ : — यहाँ आत्मा और बन्धको भिन्न-भिन्न करनेरूप कार्य है । उसका कर्ता आत्मा है । वहाँ करणके बिना कर्ता किसके द्वारा कार्य करेगा ? इसलिये करण भी आवश्यक है । निश्चयनयसे कर्तासे करण भिन्न नहीं होता; इसलिये आत्मासे अभिन्न ऐसी यह बुद्धि ही इस कार्यमें करण है । आत्माके अनादि बन्ध ज्ञानावरणादि कर्म है, इसका कार्य भावबन्ध तो रागादिक है तथा नोकर्म शरीरादिक है । इसलिये बुद्धिके द्वारा आत्माको शरीरसे, ज्ञानावरणादिक द्रव्यकर्मसे तथा रागादिक भावकर्मसे भिन्न एक चैतन्यभावमात्र अनुभव कर ज्ञानमें ही लीन रखना सो यही (आत्मा और बन्धको) भिन्न करना है । इसीसे सर्व कर्मोंका नाश होता है, सिद्धपदकी प्राप्ति होती है, ऐसा जानना चाहिए ।१८१।