आत्मबन्धौ हि तावन्नियतस्वलक्षणविज्ञानेन सर्वथैव छेत्तव्यौ; ततो रागादिलक्षणः समस्त एव बन्धो निर्मोक्त व्यः, उपयोगलक्षणः शुद्ध आत्मैव गृहीतव्यः । एतदेव किलात्म- बन्धयोर्द्विधाकरणस्य प्रयोजनं यद्बन्धत्यागेन शुद्धात्मोपादानम् ।
‘आत्मा और बन्धको द्विधा करके क्या करना चाहिए’ ऐसा प्रश्न होने पर उत्तर देते हैं : —
गाथार्थ : — [तथा ] इसप्रकार [जीवः बन्धः च ] जीव और बन्ध [नियताभ्याम् स्वलक्षणाभ्यां ] अपने निश्चित स्वलक्षणोंसे [छिद्येते ] छेदे जाते हैं । [बन्धः ] वहाँ, बन्धको [छेत्तव्यः ] छेदना चाहिए अर्थात् छोड़ना चाहिए [च ] और [शुद्धः आत्मा ] शुद्ध आत्माको [गृहीतव्यः ] ग्रहण क रना चाहिए ।
टीका : — आत्मा और बन्धको प्रथम तो उनके नियत स्वलक्षणोंके विज्ञानसे सर्वथा ही छेद अर्थात् भिन्न करना चाहिए; तत्पश्चात्, रागादिक जिसका लक्षण हैं ऐसे समस्त बन्धको तो छोड़ना चाहिए तथा उपयोग जिसका लक्षण है ऐसे शुद्ध आत्माको ही ग्रहण करना चाहिए । वास्तवमें यही आत्मा और बन्धको द्विधा करनेका प्रयोजन है कि बन्धके त्यागसे ( – अर्थात् बन्धका त्याग करके) शुद्ध आत्माको ग्रहण करना ।।२९५।।
भावार्थ : — शिष्यने प्रश्न किया था कि आत्मा और बन्धको द्विधा करके क्या करना चाहिए ? उसका यह उत्तर दिया है कि बन्धका तो त्याग करना और शुद्ध आत्माका ग्रहण करना ।
(‘आत्मा और बन्धको प्रज्ञाके द्वारा भिन्न तो किया, परन्तु आत्माको किसके द्वारा ग्रहण किया जाये ?’ — इस प्रश्नकी तथा उसके उत्तरकी गाथा कहते हैं : — )