Samaysar (Hindi). Gatha: 295.

< Previous Page   Next Page >


Page 433 of 642
PDF/HTML Page 466 of 675

 

background image
कहानजैनशास्त्रमाला ]
मोक्ष अधिकार
४३३
आत्मबन्धौ द्विधा कृत्वा किं कर्तव्यमिति चेत्
जीवो बंधो य तहा छिज्जंति सलक्खणेहिं णियएहिं
बंधो छेदेदव्वो सुद्धो अप्पा य घेत्तव्वो ।।२९५।।
जीवो बन्धश्च तथा छिद्येते स्वलक्षणाभ्यां नियताभ्याम्
बन्धश्छेत्तव्यः शुद्ध आत्मा च गृहीतव्यः ।।२९५।।
आत्मबन्धौ हि तावन्नियतस्वलक्षणविज्ञानेन सर्वथैव छेत्तव्यौ; ततो रागादिलक्षणः समस्त
एव बन्धो निर्मोक्त व्यः, उपयोगलक्षणः शुद्ध आत्मैव गृहीतव्यः एतदेव किलात्म-
बन्धयोर्द्विधाकरणस्य प्रयोजनं यद्बन्धत्यागेन शुद्धात्मोपादानम्
55
‘आत्मा और बन्धको द्विधा करके क्या करना चाहिए’ ऐसा प्रश्न होने पर उत्तर
देते हैं :
छेदन होवे जीव-बन्धका जहँ नियत निज-निज चिह्नसे
वहाँ छोड़ना इस बन्धको, जीव ग्रहण करना शुद्धको ।।२९५।।
गाथार्थ :[तथा ] इसप्रकार [जीवः बन्धः च ] जीव और बन्ध [नियताभ्याम्
स्वलक्षणाभ्यां ] अपने निश्चित स्वलक्षणोंसे [छिद्येते ] छेदे जाते हैं [बन्धः ] वहाँ, बन्धको
[छेत्तव्यः ] छेदना चाहिए अर्थात् छोड़ना चाहिए [च ] और [शुद्धः आत्मा ] शुद्ध आत्माको
[गृहीतव्यः ] ग्रहण क रना चाहिए
टीका :आत्मा और बन्धको प्रथम तो उनके नियत स्वलक्षणोंके विज्ञानसे सर्वथा ही
छेद अर्थात् भिन्न करना चाहिए; तत्पश्चात्, रागादिक जिसका लक्षण हैं ऐसे समस्त बन्धको तो
छोड़ना चाहिए तथा उपयोग जिसका लक्षण है ऐसे शुद्ध आत्माको ही ग्रहण करना चाहिए
वास्तवमें यही आत्मा और बन्धको द्विधा करनेका प्रयोजन है कि बन्धके त्यागसे (अर्थात् बन्धका
त्याग करके) शुद्ध आत्माको ग्रहण करना ।।२९५।।
भावार्थ :शिष्यने प्रश्न किया था कि आत्मा और बन्धको द्विधा करके क्या करना
चाहिए ? उसका यह उत्तर दिया है कि बन्धका तो त्याग करना और शुद्ध आत्माका ग्रहण करना
(‘आत्मा और बन्धको प्रज्ञाके द्वारा भिन्न तो किया, परन्तु आत्माको किसके द्वारा ग्रहण
किया जाये ?’इस प्रश्नकी तथा उसके उत्तरकी गाथा कहते हैं :)