ननु केन शुद्धोऽयमात्मा गृहीतव्यः ? प्रज्ञयैव शुद्धोऽयमात्मा गृहीतव्यः, शुद्धस्यात्मनः स्वय- मात्मानं गृह्णतो, विभजत इव, प्रज्ञैककरणत्वात् । अतो यथा प्रज्ञया विभक्त स्तथा प्रज्ञयैव गृहीतव्यः ।
गाथार्थ : — (शिष्य पूछता है कि — ) [सः आत्मा ] वह (शुद्ध) आत्मा [कथं ] कैसे [गृह्यते ] ग्रहण किया जाय ? (आचार्य उत्तर देते हैं कि – ) [प्रज्ञया तु ] प्रज्ञाके द्वारा [सः आत्मा ] वह (शुद्ध) आत्मा [गृह्यते ] ग्रहण किया जाता है । [यथा ] जैसे [प्रज्ञया ] प्रज्ञा द्वारा [विभक्तः ] भिन्न किया, [तथा ] उसीप्रकार [प्रज्ञया एव ] प्रज्ञाके द्वारा ही [गृहीतव्यः ] ग्रहण करना चाहिए ।
टीका : — यह शुद्ध आत्मा किसके द्वारा ग्रहण करना चाहिए ? प्रज्ञाके द्वारा ही यह शुद्ध आत्मा ग्रहण करना चाहिए; क्योंकि शुद्ध आत्माको, स्वयं निजको ग्रहण करनेमें प्रज्ञा ही एक करण है — जैसे भिन्न करनेमें प्रज्ञा ही एक करण था । इसलिये जैसे प्रज्ञाके द्वारा भिन्न किया था, उसीप्रकार प्रज्ञाके द्वारा ही ग्रहण करना चाहिए ।
भावार्थ : — भिन्न करनेमें और ग्रहण करनेमें करण अलग-अलग नहीं हैं; इसलिये प्रज्ञाके द्वारा ही आत्माको भिन्न किया और प्रज्ञाके द्वारा ही ग्रहण करना चाहिए ।।२९६।।
अब प्रश्न होता है कि — इस आत्माको प्रज्ञाके द्वारा कैसे ग्रहण करना चाहिए ? इसका उत्तर कहते हैं : —