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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
कह सो घिप्पदि अप्पा पण्णाए सो दु घिप्पदे अप्पा ।
जह पण्णाइ विभत्तो तह पण्णाएव घेत्तव्वो ।।२९६।।
कथं स गृह्यते आत्मा प्रज्ञया स तु गृह्यते आत्मा ।
यथा प्रज्ञया विभक्तस्तथा प्रज्ञयैव गृहीतव्यः ।।२९६।।
ननु केन शुद्धोऽयमात्मा गृहीतव्यः ? प्रज्ञयैव शुद्धोऽयमात्मा गृहीतव्यः, शुद्धस्यात्मनः स्वय-
मात्मानं गृह्णतो, विभजत इव, प्रज्ञैककरणत्वात् । अतो यथा प्रज्ञया विभक्त स्तथा प्रज्ञयैव गृहीतव्यः ।
कथमयमात्मा प्रज्ञया गृहीतव्य इति चेत् —
पण्णाए घित्तव्वो जो चेदा सो अहं तु णिच्छयदो ।
अवसेसा जे भावा ते मज्झ परे त्ति णादव्वा ।।२९७।।
यह जीव कैसे ग्रहण हो ? जीवका ग्रहण प्रज्ञाहि से ।
ज्यों अलग प्रज्ञासे किया, त्यों ग्रहण भी प्रज्ञाहि से ।।२९६।।
गाथार्थ : — (शिष्य पूछता है कि — ) [सः आत्मा ] वह (शुद्ध) आत्मा [कथं ] कैसे
[गृह्यते ] ग्रहण किया जाय ? (आचार्य उत्तर देते हैं कि – ) [प्रज्ञया तु ] प्रज्ञाके द्वारा [सः
आत्मा ] वह (शुद्ध) आत्मा [गृह्यते ] ग्रहण किया जाता है । [यथा ] जैसे [प्रज्ञया ] प्रज्ञा
द्वारा [विभक्तः ] भिन्न किया, [तथा ] उसीप्रकार [प्रज्ञया एव ] प्रज्ञाके द्वारा ही [गृहीतव्यः ]
ग्रहण करना चाहिए ।
टीका : — यह शुद्ध आत्मा किसके द्वारा ग्रहण करना चाहिए ? प्रज्ञाके द्वारा ही यह
शुद्ध आत्मा ग्रहण करना चाहिए; क्योंकि शुद्ध आत्माको, स्वयं निजको ग्रहण करनेमें प्रज्ञा ही
एक करण है — जैसे भिन्न करनेमें प्रज्ञा ही एक करण था । इसलिये जैसे प्रज्ञाके द्वारा भिन्न
किया था, उसीप्रकार प्रज्ञाके द्वारा ही ग्रहण करना चाहिए ।
भावार्थ : — भिन्न करनेमें और ग्रहण करनेमें करण अलग-अलग नहीं हैं; इसलिये
प्रज्ञाके द्वारा ही आत्माको भिन्न किया और प्रज्ञाके द्वारा ही ग्रहण करना चाहिए ।।२९६।।
अब प्रश्न होता है कि — इस आत्माको प्रज्ञाके द्वारा कैसे ग्रहण करना चाहिए ? इसका
उत्तर कहते हैं : —
कर ग्रहण प्रज्ञासे नियत, चेतक है सो ही मैं हि हूँ ।
अवशेष जो सब भाव हैं, मेरेसे पर हैं — जानना ।।२९७।।