Samaysar (Hindi).

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कहानजैनशास्त्रमाला ]
मोक्ष अधिकार
४३५
प्रज्ञया गृहीतव्यो यश्चेतयिता सोऽहं तु निश्चयतः
अवशेषा ये भावाः ते मम परा इति ज्ञातव्याः ।।२९७।।
यो हि नियतस्वलक्षणावलम्बिन्या प्रज्ञया प्रविभक्त श्चेतयिता, सोऽयमहं; ये
त्वमी अवशिष्टा अन्यस्वलक्षणलक्ष्या व्यवह्रियमाणा भावाः, ते सर्वेऽपि चेतयितृत्वस्य
व्यापकस्य व्याप्यत्वमनायान्तोऽत्यंतं मत्तो भिन्नाः
ततोऽहमेव मयैव मह्यमेव मत्त एव मय्येव
मामेव गृह्णामि यत्किल गृह्णामि तच्चेतनैकक्रियत्वादात्मनश्चेतय एव; चेतयमान एव चेतये,
चेतयमानेनैव चेतये, चेतयमानायैव चेतये, चेतयमानादेव चेतये, चेतयमाने एव चेतये,
चेतयमानमेव चेतये
अथवान चेतये; न चेतयमानश्चेतये, न चेतयमानेन चेतये, न
चेतयमानाय चेतये, न चेतयमानाच्चेतये, न चेतयमाने चेतये, न चेतयमानं चेतये; किन्तु
सर्वविशुद्धचिन्मात्रो भावोऽस्मि
गाथार्थ :[प्रज्ञया ] प्रज्ञाके द्वारा [गृहीतव्यः ] (आत्माको) इसप्रकार ग्रहण क रना
चाहिए कि[यः चेतयिता ] जो चेतनेवाला है [सः तु ] वह [निश्चयतः ] निश्चयसे [अहं ] मैं
हूँ, [अवशेषाः ] शेष [ये भावाः ] जो भाव हैं [ते ] वे [मम पराः ] मुझसे पर हैं, [इति ज्ञातव्यः ]
ऐसा जानना चाहिए
टीका :नियत स्वलक्षणका अवलम्बन करनेवाली प्रज्ञाके द्वारा भिन्न किया गया जो
चेतक (-चेतनेवाला) है सो यह मैं हूँ; और अन्य स्वलक्षणोंसे लक्ष्य (अर्थात् चैतन्यलक्षणके
अतिरिक्त अन्य लक्षणोंसे जानने योग्य) जो यह शेष व्यवहाररूप भाव हैं, वे सभी, चेतकत्वरूप
व्यापकके व्याप्य नहीं होते इसलिये, मुझसे अत्यन्त भिन्न हैं
इसलिये मैं ही, अपने द्वारा ही, अपने
लिये ही, अपनेमेंसे ही, अपनेमें ही, अपनेको ही ग्रहण करता हूँ आत्माकी, चेतना ही एक क्रिया
है इसलिये, ‘मैं ग्रहण करता हूँ’ अर्थात् ‘मैं चेतता ही हूँ’; चेतता हुआ ही चेतता हूँ, चेतते द्वारा
ही चेतता हूँ, चेतते हुएके लिए ही चेतता हूँ, चेतते हुयेसे चेतता हूँ, चेततेमें ही चेतता हूँ, चेततेको
ही चेतता हूँ
अथवानहीं चेतता, न चेतता हुआ चेतता हूँ, न चेतते हुयेके द्वारा चेतता हूँ, न
चेतते हुएके लिए चेतता हूँ, न चेतते हुएसे चेतता हूँ, न चेतते हुएमें चेतता हूँ, न चेतते हुएको
चेतता हूँ; किन्तु सर्वविशुद्ध चिन्मात्र (
चैतन्यमात्र) भाव हूँ
भावार्थ :प्रज्ञाके द्वारा भिन्न किया गया जो चेतक वह मैं हूँ और शेष भाव मुझसे पर
हैं; इसलिये (अभिन्न छह कारकोंसे) मैं ही, मेरे द्वारा ही, मेरे लिये ही, मुझसे ही, मुझमें ही,
मुझे ही ग्रहण करता हूँ
‘ग्रहण करता हूँ’ अर्थात् ‘चेतता हूँ’, क्योंकि चेतना ही आत्माकी एक