यो हि नियतस्वलक्षणावलम्बिन्या प्रज्ञया प्रविभक्त श्चेतयिता, सोऽयमहं; ये त्वमी अवशिष्टा अन्यस्वलक्षणलक्ष्या व्यवह्रियमाणा भावाः, ते सर्वेऽपि चेतयितृत्वस्य व्यापकस्य व्याप्यत्वमनायान्तोऽत्यंतं मत्तो भिन्नाः । ततोऽहमेव मयैव मह्यमेव मत्त एव मय्येव मामेव गृह्णामि । यत्किल गृह्णामि तच्चेतनैकक्रियत्वादात्मनश्चेतय एव; चेतयमान एव चेतये, चेतयमानेनैव चेतये, चेतयमानायैव चेतये, चेतयमानादेव चेतये, चेतयमाने एव चेतये, चेतयमानमेव चेतये । अथवा — न चेतये; न चेतयमानश्चेतये, न चेतयमानेन चेतये, न चेतयमानाय चेतये, न चेतयमानाच्चेतये, न चेतयमाने चेतये, न चेतयमानं चेतये; किन्तु सर्वविशुद्धचिन्मात्रो भावोऽस्मि ।
गाथार्थ : — [प्रज्ञया ] प्रज्ञाके द्वारा [गृहीतव्यः ] (आत्माको) इसप्रकार ग्रहण क रना चाहिए कि — [यः चेतयिता ] जो चेतनेवाला है [सः तु ] वह [निश्चयतः ] निश्चयसे [अहं ] मैं हूँ, [अवशेषाः ] शेष [ये भावाः ] जो भाव हैं [ते ] वे [मम पराः ] मुझसे पर हैं, [इति ज्ञातव्यः ] ऐसा जानना चाहिए ।
टीका : — नियत स्वलक्षणका अवलम्बन करनेवाली प्रज्ञाके द्वारा भिन्न किया गया जो चेतक (-चेतनेवाला) है सो यह मैं हूँ; और अन्य स्वलक्षणोंसे लक्ष्य (अर्थात् चैतन्यलक्षणके अतिरिक्त अन्य लक्षणोंसे जानने योग्य) जो यह शेष व्यवहाररूप भाव हैं, वे सभी, चेतकत्वरूप व्यापकके व्याप्य नहीं होते इसलिये, मुझसे अत्यन्त भिन्न हैं । इसलिये मैं ही, अपने द्वारा ही, अपने लिये ही, अपनेमेंसे ही, अपनेमें ही, अपनेको ही ग्रहण करता हूँ । आत्माकी, चेतना ही एक क्रिया है इसलिये, ‘मैं ग्रहण करता हूँ’ अर्थात् ‘मैं चेतता ही हूँ’; चेतता हुआ ही चेतता हूँ, चेतते द्वारा ही चेतता हूँ, चेतते हुएके लिए ही चेतता हूँ, चेतते हुयेसे चेतता हूँ, चेततेमें ही चेतता हूँ, चेततेको ही चेतता हूँ । अथवा — नहीं चेतता, न चेतता हुआ चेतता हूँ, न चेतते हुयेके द्वारा चेतता हूँ, न चेतते हुएके लिए चेतता हूँ, न चेतते हुएसे चेतता हूँ, न चेतते हुएमें चेतता हूँ, न चेतते हुएको चेतता हूँ; किन्तु सर्वविशुद्ध चिन्मात्र ( – चैतन्यमात्र) भाव हूँ ।
भावार्थ : — प्रज्ञाके द्वारा भिन्न किया गया जो चेतक वह मैं हूँ और शेष भाव मुझसे पर हैं; इसलिये (अभिन्न छह कारकोंसे) मैं ही, मेरे द्वारा ही, मेरे लिये ही, मुझसे ही, मुझमें ही, मुझे ही ग्रहण करता हूँ । ‘ग्रहण करता हूँ’ अर्थात् ‘चेतता हूँ’, क्योंकि चेतना ही आत्माकी एक