चेतनाया दर्शनज्ञानविकल्पानतिक्रमणाच्चेतयितृत्वमिव द्रष्टृत्वं ज्ञातृत्वं चात्मनः स्वलक्षणमेव । ततोऽहं द्रष्टारमात्मानं गृह्णामि । यत्किल गृह्णामि तत्पश्याम्येव; पश्यन्नेव पश्यामि,
गाथार्थ : — [प्रज्ञया ] प्रज्ञाके द्वारा [गृहीतव्यः ] इसप्रकार ग्रहण करना चाहिए कि — [यः द्रष्टा ] जो देखनेवाला है [सः तु ] वह [निश्चयतः ] निश्चयसे [अहम् ] मैं हूँ, [अवशेषाः ] शेष [ये भावाः ] जो भाव हैं [ते ] वे [मम पराः ] मुझसे पर हैं, [इति ज्ञातव्याः ] ऐसा जानना चाहिए ।
[प्रज्ञया ] प्रज्ञाके द्वारा [गृहीतव्यः ] इसप्रकार ग्रहण करना चाहिए कि — [यः ज्ञाता ] जो जाननेवाला है [सः तु ] वह [निश्चयतः ] निश्चयसे [अहम् ] मैं हूँ, [अवशेषाः ] शेष [ये भावाः ] जो भाव हैं [ते ] वे [मम पराः ] मुझसे पर हैं, [इति ज्ञातव्याः ] ऐसा जानना चाहिए ।
टीका : — चेतना दर्शनज्ञानरूप भेदोंका उल्लंघन नहीं करती है इसलिये, चेतकत्वकी भाँति दर्शकत्व और ज्ञातृत्व आत्माका स्वलक्षण ही है । इसलिये मैं देखनेवाले आत्माको ग्रहण करता हूँ । ‘ग्रहण करता हूँ’ अर्थात् ‘देखता ही हूँ’; देखता हुआ ही देखता हूँ, देखते हुएके द्वारा