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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
पश्यतैव पश्यामि, पश्यते एव पश्यामि, पश्यत एव पश्यामि, पश्यत्येव पश्यामि, पश्यन्तमेव
पश्यामि । अथवा — न पश्यामि; न पश्यन् पश्यामि, न पश्यता पश्यामि, न पश्यते पश्यामि,
न पश्यतः पश्यामि, न पश्यति पश्यामि, न पश्यन्तं पश्यामि; किन्तु सर्वविशुद्धो द्रङ्मात्रो
भावोऽस्मि । अपि च — ज्ञातारमात्मानं गृह्णामि । यत्किल गृह्णामि तज्जानाम्येव; जानन्नेव जानामि,
जानतैव जानामि, जानते एव जानामि, जानत एव जानामि, जानत्येव जानामि, जानन्तमेव
जानामि । अथवा — न जानामि; न जानन् जानामि, न जानता जानामि, न जानते जानामि,
न जानतो जानामि, न जानति जानामि, न जानन्तं जानामि; किन्तु सर्वविशुद्धो ज्ञप्तिमात्रो
भावोऽस्मि ।
ही देखता हूँ, देखते हुएके लिए ही देखता हूँ, देखते हुएसे ही देखता हूँ, देखते हुएमें ही देखता
हूँ, देखते हुयेको ही देखता हूँ । अथवा — नहीं देखता; न देखता हुआ देखता हूँ, न देखते हुएके
द्वारा देखता हूँ, न देखते हुएके लिए देखता हूँ, न देखते हुएसे देखता हूँ, न देखते हुएमें देखता
हूँ, न देखते हुएको देखता हूँ; किन्तु मैं सर्वविशुद्ध दर्शनमात्र भाव हूँ । और इसीप्रकार — मैं
जाननेवाले आत्माको ग्रहण करता हूँ । ‘ग्रहण करता हूँ’ अर्थात् ‘जानता ही हूँ’; जानता हुआ ही
जानता हूँ, जानते हुएके द्वारा ही जानता हूँ, जानते हुएके लिए ही जानता हूँ, जानते हुएसे ही
जानता हूँ, जानते हुएमें ही जानता हूँ, जानते हुएको ही जानता हूँ । अथवा — नहीं जानता; न
जानता हुआ जानता हूँ, नहीं जानते हुएके द्वारा जानता हूँ, न जानते हुएके लिये जानता हूँ, न
जानते हुएसे जानता हूँ, न जानते हुएमें जानता हूँ, न जानते हुएको जानता हूँ; किन्तु मैं सर्वविशुद्ध
ज्ञप्ति ( – जाननक्रिया) – मात्र भाव हूँ । (इसप्रकार देखनेवाले आत्माको तथा जाननेवाले आत्माको
कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरणरूप कारकोंके भेदपूर्वक ग्रहण करके,
तत्पश्चात् कारकभेदोंका निषेध करके आत्माको अर्थात् अपनेको दर्शनमात्र भावरूप तथा ज्ञानमात्र
भावरूप करना चाहिये अर्थात् अभेदरूपसे अनुभव करना चाहिये ।)।।२९८-२९९।।
(भावार्थ : — इन तीन गाथाओंमें, प्रज्ञाके द्वारा आत्माको ग्रहण करनेको कहा गया है ।
‘ग्रहण करना’ अर्थात् किसी अन्य वस्तुको ग्रहण करना अथवा लेना नहीं है; किन्तु चेतनाका
अनुभव करना ही आत्माका ‘ग्रहण करना’ है ।
पहली गाथामें सामान्य चेतनाका अनुभव कराया गया है । वहाँ, अनुभव करनेवाला,
जिसका अनुभव किया जाता है वह, और जिसके द्वारा अनुभव किया जाता है वह — इत्यादि
कारकभेदरूपसे आत्माको कहकर, अभेदविवक्षामें कारकभेदका निषेध करके, आत्माको एक शुद्ध
चैतन्यमात्र कहा गया है ।