ननु कथं चेतना दर्शनज्ञानविकल्पौ नातिक्रामति येन चेतयिता द्रष्टा ज्ञाता च स्यात् ? उच्यते — चेतना तावत्प्रतिभासरूपा; सा तु, सर्वेषामेव वस्तूनां सामान्यविशेषात्मकत्वात्, द्वैरूप्यं नातिक्रामति । ये तु तस्या द्वे रूपे ते दर्शनज्ञाने । ततः सा ते नातिक्रामति । यद्यतिक्रामति, सामान्यविशेषातिक्रान्तत्वाच्चेतनैव न भवति । तदभावे द्वौ दोषौ — स्वगुणोच्छेदाच्चेतनस्या- चेतनतापत्तिः, व्यापकाभावे व्याप्यस्य चेतनस्याभावो वा । ततस्तद्दोषभयाद्दर्शनज्ञानात्मिकैव चेतनाभ्युपगन्तव्या ।
दात्मा चान्तमुपैति तेन नियतं द्रग्ज्ञप्तिरूपाऽस्तु चित् ।।१८३।।
अब इन दो गाथाओंमें द्रष्टा तथा ज्ञाताका अनुभव कराया है, क्योंकि चेतनासामान्य दर्शन- ज्ञानविशेषोंका उल्लंघन नहीं करती । यहाँ भी, छह कारकरूप भेद-अनुभवन कराके, और तत्पश्चात् अभेद-अनुभवनकी अपेक्षासे कारकभेदको दूर कराके, द्रष्टाज्ञातामात्रका अनुभव कराया है ।)
टीका : — यहाँ प्रश्न होता है कि — चेतना दर्शनज्ञानभेदोंका उल्लंघन क्यों नहीं करती कि जिससे चेतयिता द्रष्ट तथा ज्ञाता होता है ? इसका उत्तर कहते हैं : — प्रथम तो चेतना प्रतिभासरूप है । वह चेतना द्विरूपताका उल्लंघन नहीं करती, क्योंकि समस्त वस्तुऐं सामान्यविशेषात्मक हैं । (सभी वस्तुऐं सामान्यविशेषस्वरूप हैं, इसलिये उन्हें प्रतिभासनेवाली चेतना भी द्विरूपताका उल्लंघन नहीं करती ।) उसके जो दो रूप हैं वे दर्शन और ज्ञान हैं । इसलिये वह उनका ( – दर्शनज्ञानका) उल्लंघन नहीं करती । यदि चेतना दर्शनज्ञानका उल्लंघन करे तो सामान्य विशेषका उल्लंघन करनेसे चेतना ही न रहे (अर्थात् चेतनाका अभाव हो जायेगा) । उसके अभावमें दो दोष आते हैं — (१) अपने गुणका नाश होनेसे चेतनको अचेतनत्व आ जायेगा, अथवा (२) व्यापक(-चेतना-)के अभावमें व्याप्य ऐसे चेतन(आत्मा)का अभाव हो जायेगा । इसलिये उन दोषोंके भयसे चेतनाको दर्शनज्ञानस्वरूप ही अंगीकार करना चाहिए ।
श्लोकार्थ : — [जगति हि चेतना अद्वैता ] जगतमें निश्चयतः चेतना अद्वैत है [अपि चेत् सा दृग्ज्ञप्तिरूपं त्यजेत् ] तथापि यदि वह दर्शनज्ञानरूपको छोड़ दे [तत्सामान्यविशेषरूपविरहात् ]