Samaysar (Hindi). Kalash: 183.

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कहानजैनशास्त्रमाला ]
मोक्ष अधिकार
४३९

ननु कथं चेतना दर्शनज्ञानविकल्पौ नातिक्रामति येन चेतयिता द्रष्टा ज्ञाता च स्यात् ? उच्यतेचेतना तावत्प्रतिभासरूपा; सा तु, सर्वेषामेव वस्तूनां सामान्यविशेषात्मकत्वात्, द्वैरूप्यं नातिक्रामति ये तु तस्या द्वे रूपे ते दर्शनज्ञाने ततः सा ते नातिक्रामति यद्यतिक्रामति, सामान्यविशेषातिक्रान्तत्वाच्चेतनैव न भवति तदभावे द्वौ दोषौस्वगुणोच्छेदाच्चेतनस्या- चेतनतापत्तिः, व्यापकाभावे व्याप्यस्य चेतनस्याभावो वा ततस्तद्दोषभयाद्दर्शनज्ञानात्मिकैव चेतनाभ्युपगन्तव्या

(शार्दूलविक्रीडित)
अद्वैतापि हि चेतना जगति चेद् द्रग्ज्ञप्तिरूपं त्यजेत्
तत्सामान्यविशेषरूपविरहात्साऽस्तित्वमेव त्यजेत्
तत्त्यागे जडता चितोऽपि भवति व्याप्यो बिना व्यापका-
दात्मा चान्तमुपैति तेन नियतं
द्रग्ज्ञप्तिरूपाऽस्तु चित् ।।१८३।।

अब इन दो गाथाओंमें द्रष्टा तथा ज्ञाताका अनुभव कराया है, क्योंकि चेतनासामान्य दर्शन- ज्ञानविशेषोंका उल्लंघन नहीं करती यहाँ भी, छह कारकरूप भेद-अनुभवन कराके, और तत्पश्चात् अभेद-अनुभवनकी अपेक्षासे कारकभेदको दूर कराके, द्रष्टाज्ञातामात्रका अनुभव कराया है )

टीका :यहाँ प्रश्न होता है किचेतना दर्शनज्ञानभेदोंका उल्लंघन क्यों नहीं करती कि जिससे चेतयिता द्रष्ट तथा ज्ञाता होता है ? इसका उत्तर कहते हैं :प्रथम तो चेतना प्रतिभासरूप है वह चेतना द्विरूपताका उल्लंघन नहीं करती, क्योंकि समस्त वस्तुऐं सामान्यविशेषात्मक हैं (सभी वस्तुऐं सामान्यविशेषस्वरूप हैं, इसलिये उन्हें प्रतिभासनेवाली चेतना भी द्विरूपताका उल्लंघन नहीं करती ) उसके जो दो रूप हैं वे दर्शन और ज्ञान हैं इसलिये वह उनका (दर्शनज्ञानका) उल्लंघन नहीं करती यदि चेतना दर्शनज्ञानका उल्लंघन करे तो सामान्य विशेषका उल्लंघन करनेसे चेतना ही न रहे (अर्थात् चेतनाका अभाव हो जायेगा) उसके अभावमें दो दोष आते हैं(१) अपने गुणका नाश होनेसे चेतनको अचेतनत्व आ जायेगा, अथवा (२) व्यापक(-चेतना-)के अभावमें व्याप्य ऐसे चेतन(आत्मा)का अभाव हो जायेगा इसलिये उन दोषोंके भयसे चेतनाको दर्शनज्ञानस्वरूप ही अंगीकार करना चाहिए

अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं :

श्लोकार्थ :[जगति हि चेतना अद्वैता ] जगतमें निश्चयतः चेतना अद्वैत है [अपि चेत् सा दग्ज्ञप्तिरूपं त्यजेत् ] तथापि यदि वह दर्शनज्ञानरूपको छोड़ दे [तत्सामान्यविशेषरूपविरहात् ]