भावाः परे ये किल ते परेषाम् ।
भावाः परे सर्वत एव हेयाः ।।१८४।।
छोड़ देगी; और [तत्-त्यागे ] इसप्रकार चेतना अपने अस्तित्वको छोड़ने पर, (१) [चितः अपि
जडता भवति ] चेतनके जड़त्व आ जायेगा अर्थात् आत्मा जड़ हो जाय, [च ] और (२)
[व्यापकात् विना व्याप्यः आत्मा अन्तम् उपैति ] व्यापक (चेताना)के बिना व्याप्य जो आत्मा
वह नष्ट हो जायेगा ( – इसप्रकार दो दोष आते हैं)
भावार्थ : — समस्त वस्तुऐं सामान्यविशेषात्मक हैं । इसलिए उन्हें प्रतिभासनेवाली चेतना भी सामान्यप्रतिभासरूप ( – दर्शनरूप) और विशेषप्रतिभासरूप ( – ज्ञानरूप) होनी चाहिए । यदि चेतना अपनी दर्शनज्ञानरूपताको छोड़ दे तो चेतनाका ही अभाव होने पर, या चेतन आत्माको (अपने चेतना गुणका अभाव होने पर) जड़त्व आ जायगा, अथवा तो व्यापकके अभावसे व्याप्य ऐसे आत्माका अभाव हो जायेगा । (चेतना आत्माकी सर्व अवस्थाओंमें व्याप्त होनेसे व्यापक है और आत्मा चेतन होनेसे चेतनाका व्याप्य है । इसलिए चेतनाका अभाव होने पर आत्माका भी अभाव हो जायेगा ।) इसलिये चेतनाको दर्शनज्ञानस्वरूप ही मानना चाहिए ।
यहाँ तात्पर्य यह है कि — सांख्यमतावलम्बी आदि कितने ही लोग सामान्य चेतनाको ही मानकर एकान्त कथन करते हैं, उनका निषेध करनेके लिए यहाँ यह बताया गया है कि ‘वस्तुका स्वरूप सामान्यविशेषरूप है, इसलिए चेतनाको सामान्यविशेषरूप अंगीकार करना चाहिए’ ।१८३।
श्लोकार्थ : — [चितः ] चैतन्यका (आत्माका) तो [एकः चिन्मयः एव भावः ] एक चिन्मय ही भाव है, और [ये परे भावाः ] जो अन्य भाव हैं [ते किल परेषाम् ] वे वास्तवमें दूसरोंके भाव हैं; [तत : ] इसलिए [चिन्मयः भावः एव ग्राह्यः ] (एक) चिन्मय भाव ही ग्रहण क रने योग्य है, [परे भावाः सर्वतः एव हेयाः ] अन्य भाव सर्वथा त्याज्य हैं ।१८४।