कहानजैनशास्त्रमाला ]
मोक्ष अधिकार
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को णाम भणिज्ज बुहो णादुं सव्वे पराइए भावे ।
मज्झमिणं ति य वयणं जाणंतो अप्पयं सुद्धं ।।३००।।
को नाम भणेद्बुधः ज्ञात्वा सर्वान् परकीयान् भावान् ।
ममेदमिति च वचनं जानन्नात्मानं शुद्धम् ।।३००।।
यो हि परात्मनोर्नियतस्वलक्षणविभागपातिन्या प्रज्ञया ज्ञानी स्यात्, स खल्वेकं
चिन्मात्रं भावमात्मीयं जानाति, शेषांश्च सर्वानेव भावान् परकीयान् जानाति । एवं च
जानन् कथं परभावान्ममामी इति ब्रूयात् ? परात्मनोर्निश्चयेन स्वस्वामिसम्बन्धस्यासम्भवात् ।
अतः सर्वथा चिद्भाव एव गृहीतव्यः, शेषाः सर्वे एव भावाः प्रहातव्या इति सिद्धान्तः ।
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सब भाव जो परकीय जाने, शुद्ध जाने आत्मको ।
वह कौन ज्ञानी ‘मेरा है यह’ यों वचन बोले अहो ? ३००।।
गाथार्थ : — [सर्वान् भावान् ] सर्व भावोंको [परकीयान् ] दूसरोंके [ज्ञात्वा ] जानकर
[कः नाम बुधः ] कौन ज्ञानी, [आत्मानम् ] अपनेको [शुद्धम् ] शुद्ध [जानन् ] जानता हुआ,
[इदम् मम ] ‘यह मेरा है’ ( – ‘यह भाव मेरे हैं’) [इति च वचनम् ] ऐसा वचन
[भणेत् ] बोलेगा ?
टीका : — जो (पुरुष) परके और आत्माके नियत स्वलक्षणोंके विभागमें पड़नेवाली
प्रज्ञाके द्वारा ज्ञानी होता है, वह वास्तवमें एक चिन्मात्र भावको अपना जानता है और शेष सर्व
भावोंको दूसरोंके जानता है । ऐसा जानता हुआ (वह पुरुष) परभावोंको ‘यह मेरे हैं’ ऐसा क्यों
कहेगा ? (नहीं कहेगा;) क्योंकि परमें और अपनेमें निश्चयसे स्वस्वामिसम्बन्धका असम्भव है ।
इसलिये, सर्वथा चिद्भाव ही (एकमात्र) ग्रहण करने योग्य है, शेष समस्त भाव छोड़ने योग्य
हैं — ऐसा सिद्धान्त है ।
भावार्थ : — लोकमें भी यह न्याय है कि — जो सुबुद्धि और न्यायवान होता है वह दूसरेके
धनादिको अपना नहीं कहता । इसीप्रकार जो सम्यग्ज्ञानी है, वह समस्त परद्रव्योंको अपना नहीं
मानता । किन्तु अपने निजभावको ही अपना जानकर ग्रहण करता है ।।३००।।
अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं : —