Samaysar (Hindi). Gatha: 300.

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कहानजैनशास्त्रमाला ]
मोक्ष अधिकार
४४१
को णाम भणिज्ज बुहो णादुं सव्वे पराइए भावे
मज्झमिणं ति य वयणं जाणंतो अप्पयं सुद्धं ।।३००।।
को नाम भणेद्बुधः ज्ञात्वा सर्वान् परकीयान् भावान्
ममेदमिति च वचनं जानन्नात्मानं शुद्धम् ।।३००।।
यो हि परात्मनोर्नियतस्वलक्षणविभागपातिन्या प्रज्ञया ज्ञानी स्यात्, स खल्वेकं
चिन्मात्रं भावमात्मीयं जानाति, शेषांश्च सर्वानेव भावान् परकीयान् जानाति एवं च
जानन् कथं परभावान्ममामी इति ब्रूयात् ? परात्मनोर्निश्चयेन स्वस्वामिसम्बन्धस्यासम्भवात्
अतः सर्वथा चिद्भाव एव गृहीतव्यः, शेषाः सर्वे एव भावाः प्रहातव्या इति सिद्धान्तः
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सब भाव जो परकीय जाने, शुद्ध जाने आत्मको
वह कौन ज्ञानी ‘मेरा है यह’ यों वचन बोले अहो ? ३००।।
गाथार्थ :[सर्वान् भावान् ] सर्व भावोंको [परकीयान् ] दूसरोंके [ज्ञात्वा ] जानकर
[कः नाम बुधः ] कौन ज्ञानी, [आत्मानम् ] अपनेको [शुद्धम् ] शुद्ध [जानन् ] जानता हुआ,
[इदम् मम ] ‘यह मेरा है’ (
‘यह भाव मेरे हैं’) [इति च वचनम् ] ऐसा वचन
[भणेत् ] बोलेगा ?
टीका :जो (पुरुष) परके और आत्माके नियत स्वलक्षणोंके विभागमें पड़नेवाली
प्रज्ञाके द्वारा ज्ञानी होता है, वह वास्तवमें एक चिन्मात्र भावको अपना जानता है और शेष सर्व
भावोंको दूसरोंके जानता है
ऐसा जानता हुआ (वह पुरुष) परभावोंको ‘यह मेरे हैं’ ऐसा क्यों
कहेगा ? (नहीं कहेगा;) क्योंकि परमें और अपनेमें निश्चयसे स्वस्वामिसम्बन्धका असम्भव है
इसलिये, सर्वथा चिद्भाव ही (एकमात्र) ग्रहण करने योग्य है, शेष समस्त भाव छोड़ने योग्य
हैं
ऐसा सिद्धान्त है
भावार्थ :लोकमें भी यह न्याय है किजो सुबुद्धि और न्यायवान होता है वह दूसरेके
धनादिको अपना नहीं कहता इसीप्रकार जो सम्यग्ज्ञानी है, वह समस्त परद्रव्योंको अपना नहीं
मानता किन्तु अपने निजभावको ही अपना जानकर ग्रहण करता है ।।३००।।
अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं :