शुद्धं चिन्मयमेकमेव परमं ज्योतिः सदैवास्म्यहम् ।
स्तेऽहं नास्मि यतोऽत्र ते मम परद्रव्यं समग्रा अपि ।।१८५।।
श्लोकार्थ : — [उदात्तचित्तचरितैः मोक्षार्थिभिः ] जिनके चित्तका चरित्र उदात्त ( – उदार, उच्च, उज्ज्वल) है ऐसे मोक्षार्थी [अयम् सिद्धान्तः ] इस सिद्धांतका [सेव्यताम् ] सेवन करें कि — ‘[अहम् शुद्धं चिन्मयम् एकम् परमं ज्योतिः एव सदा एव अस्मि ] मैं तो सदा ही शुद्ध चैतन्यमय एक परम ज्योति ही हूँ; [तु] और [एते ये पृथग्लक्षणाः विविधाः भावाः समुल्लसन्ति ते अहं न अस्मि ] जो यह भिन्न लक्षणवाले विविध प्रकारके भाव प्रगट होते हैं वे मैं नहीं हूँ, [यतः अत्र ते समग्राः अपि मम परद्रव्यम् ] क्योंकि वे सभी मेरे लिए परद्रव्य हैं ’ ।१८५।
श्लोकार्थ : — [परद्रव्यग्रहं कुर्वन् ] जो परद्रव्यको ग्रहण क रता है [अपराधवान् ] वह अपराधी है, [बध्येत एव] इसलिये बन्धमें पड़ता है, और [स्वद्रव्ये संवृतः यतिः ] जो स्वद्रव्यमें ही संवृत है (अर्थात् जो अपने द्रव्यमें ही गुप्त है — मग्न है — संतुष्ट है, परद्रव्यका ग्रहण नहीं करता) ऐसा यति [अनपराधः ] निरपराधी है, [न बध्येत ] इसलिये बँधता नहीं है ।१८६।