गाथार्थ : — [यः ] जो पुरुष [स्तेयादीन् अपराधान् ] चोरी आदिके अपराध [करोति ] करता है, [सः तु ] वह ‘[जने विचरन् ] लोक में घूमता हुआ [केन अपि ] मुझे कोई [चौरः इति ] चोर समझकर [मा बध्ये ] पकड़ न ले’, इसप्रकार [शङ्कितः भ्रमति ] शंकि त होता हुआ घूमता है; [यः ] जो पुरुष [अपराधान् ] अपराध [न करोति ] नहीं क रता [सः तु ] वह [जनपदे ] लोक में [निश्शङ्कः भ्रमति ] निःशंक घूमता है, [यद् ] क्योंकि [तस्य ] उसे [बद्धुं चिन्ता ] बँधनेकी चिन्ता [कदाचित् अपि ] क भी भी [न उत्पद्यते ] उत्पन्न नहीं होती । [एवम् ] इसीप्रकार [चेतयिता ] अपराधी आत्मा ‘[सापराधः अस्मि ] मैं अपराधी हूँ, [बध्ये तु अहम् ] इसलिये मैं बँधूँगा’ इसप्रकार [शङ्कितः ] शंकि त होता है, [यदि पुनः ] और यदि [निरपराधः ] अपराध रहित (आत्मा) हो तो ‘[अहं न बध्ये ] मैं नहीं बँधूँगा’ इसप्रकार [निश्शंङ्कः ] निःशंक होता है ।
टीका : — जैसे इस जगतमें जो पुरुष, परद्रव्यका ग्रहण जिसका लक्षण है ऐसा अपराध करता है उसीको बन्धकी शंका होती है, और जो अपराध नहीं करता उसे बन्धकी शंका नहीं होती;