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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
तं न करोति तस्य सा न सम्भवति; तथात्मापि य एवाशुद्धः सन् परद्रव्यग्रहणलक्षणमपराधं
करोति तस्यैव बन्धशंका सम्भवति, यस्तु शुद्धः संस्तं न करोति तस्य सा न सम्भवतीति
नियमः । अतः सर्वथा सर्वपरकीयभावपरिहारेण शुद्ध आत्मा गृहीतव्यः, तथा सत्येव
निरपराधत्वात् ।
को हि नामायमपराधः ? —
संसिद्धिराधसिद्धं साधियमाराधियं च एयट्ठं ।
अवगदराधो जो खलु चेदा सो होदि अवराधो ।।३०४।।
जो पुण णिरावराधो चेदा णिस्संकिओ उ सो होइ ।
आराहणाइ णिच्चं वट्टेइ अहं ति जाणंतो ।।३०५।।
इसीप्रकार आत्मा भी जो अशुद्ध वर्तता हुआ, परद्रव्यका ग्रहण जिसका लक्षण है ऐसा अपराध
करता है उसीको बन्धकी शँका होती है, तथा जो शुद्ध वर्तता हुआ अपराध नहीं करता उसे बन्धकी
शँका नहीं होती — ऐसा नियम है । इसलिए सर्वथा समस्त परकीय भावोंके परिहार द्वारा (अर्थात्
परद्रव्यके सर्व भावोंको छोड़कर) शुद्ध आत्माको ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि ऐसा होने पर ही
निरपराधता होती है ।।३०० से ३०३।।
भावार्थ : — यदि मनुष्य चोरी आदि अपराध करे तो उसे बन्धनकी शँका हो; निरपराधको
शँका क्यों होगी ? इसीप्रकार यदि आत्मा परद्रव्यके ग्रहणरूप अपराध करे तो उसे बन्धकी शँका
अवश्य होगी; यदि अपनेको शुद्ध अनुभव करे, परका ग्रहण न करे, तो बन्धकी शँका क्यों होगी ?
इसलिए परद्रव्यको छोड़कर शुद्ध आत्माका ग्रहण करना चाहिए । तभी निरपराध हुआ जाता है ।
अब प्रश्न होता है कि यह ‘अपराध’ क्या है ? उसके उत्तरमें अपराधका स्वरूप कहते
हैं : —
संसिद्धि, सिद्धि जु राध, अरु साधित, अराधित — एक है ।
उस राधसे जो रहित है, वह आतमा अपराध है ।।३०४।।
अरु आतमा जो निरपराधी, होय है निःशङ्क सो ।
वर्ते सदा आराधनासे, जानता ‘मैं’ आत्मको ।।३०५।।