४५४समयसार
इति श्रीमदमृतचन्द्रसूरिविरचितायां समयसारव्याख्यायामात्मख्यातौ मोक्षप्ररूपकः अष्टमोऽङ्कः ।।
भावार्थ : — रंगभूमिमें मोक्षतत्त्वका स्वाँग आया था । जहाँ ज्ञान प्रगट हुआ वहाँ उस मोक्षका स्वाँग रंगभूमिसे बाहर निकल गया ।
(सवैया)
ज्यों नर कोय परयो दृढ़बन्धन बन्धस्वरूप लखै दुखकारी,
चिन्त करै निति कैम कटे यह तौऊ छिदै नहि नैक टिकारी ।
चिन्त करै निति कैम कटे यह तौऊ छिदै नहि नैक टिकारी ।
छेदनकूँ गहि आयुध धाय चलाय निशंक करै दुय धारी,
यों बुध बुद्धि धसाय दुधा करि कर्म रु आतम आप गहारी ।।
यों बुध बुद्धि धसाय दुधा करि कर्म रु आतम आप गहारी ।।
इसप्रकार श्री समयसारकी (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत श्री समयसार परमागमकी) श्रीमद् अमृतचन्द्राचार्यदेवविरचित आत्मख्याति नामक टीकामें मोक्षका प्ररूपक आठवाँ अंक समाप्त हुआ ।