कहानजैनशास्त्रमाला ]
मोक्ष अधिकार
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(मन्दाक्रान्ता)
बन्धच्छेदात्कलयदतुलं मोक्षमक्षय्यमेत-
न्नित्योद्योतस्फु टितसहजावस्थमेकान्तशुद्धम् ।
एकाकारस्वरसभरतोऽत्यन्तगम्भीरधीरं
पूर्णं ज्ञानं ज्वलितमचले स्वस्य लीनं महिम्नि ।।१९२।।
इति मोक्षो निष्क्रान्तः ।
हुआ, [मुच्यते ] क र्मोंसे मुक्त होता है ।
भावार्थ : — जो पुरुष, पहले समस्त परद्रव्यका त्याग करके निज द्रव्यमें
(आत्मस्वरूपमें) लीन होता है, वह पुरुष समस्त रागादिक अपराधोंसे रहित होकर आगामी
बन्धका नाश करता है और नित्य उदयस्वरूप केवलज्ञानको प्राप्त करके, शुद्ध होकर समस्त
कर्मोंका नाश करके, मोक्षको प्राप्त करता है । यह, मोक्ष होनेका अनुक्रम है ।१९१।
अब मोक्ष अधिकारको पूर्ण करते हुए, उसके अन्तिम मंगलरूप पूर्ण ज्ञानकी महिमाका
(सर्वथा शुद्ध हुए आत्मद्रव्यकी महिमाका) कलशरूप काव्य कहते हैं : —
श्लोकार्थ : — [बन्धच्छेदात् अतुलम् अक्षय्यम् मोक्षम् कलयत् ] क र्मबन्धके छेदनेसे
अतुल अक्षय (अविनाशी) मोक्षका अनुभव करता हुआ, [नित्य-उद्योत-स्फु टित-सहज-
अवस्थम् ] नित्य उद्योतवाली (जिसका प्रकाश नित्य है ऐसी) सहज अवस्था जिसकी खिल
उठी है ऐसा, [एकान्त-शुद्धम् ] एकान्त शुद्ध ( – क र्ममलके न रहनेसे अत्यन्त शुद्ध), और
[एकाकार-स्व-रस-भरतः अत्यन्त-गम्भीर-धीरम् ] एकाकार (एक ज्ञानमात्र आकारमें
परिणमित) निजरसकी अतिशयतासे जो अत्यन्त गम्भीर और धीर है ऐसा, [एतत् पूर्णं ज्ञानम् ]
यह पूर्ण ज्ञान [ज्वलितम् ] प्रकाशित हो उठा है (सर्वथा शुद्ध आत्मद्रव्य जाज्वल्यमान प्रगट
हुआ है); और [स्वस्य अचले महिम्नि लीनम् ] अपनी अचल महिमामें लीन हुआ है ।
भावार्थ : — कर्मका नाश करके मोक्षका अनुभव करता हुआ, अपनी स्वाभाविक
अवस्थारूप, अत्यन्त शुद्ध, समस्त ज्ञेयाकारोंको गौण करता हुआ, अत्यन्त गम्भीर (जिसका पार
नहीं है ऐसा) और धीर (आकुलता रहित) — ऐसा पूर्ण ज्ञान प्रगट देदीप्यमान होता हुआ,
अपनी महिमामें लीन हो गया ।१९२।
टीका : — इसप्रकार मोक्ष (रंगभूमिमेंसे) बाहर निकल गया ।