कषायभरगौरवादलसता प्रमादो यतः ।
मुनिः परमशुद्धतां व्रजति मुच्यते वाऽचिरात् ।।१९०।।
स्वद्रव्ये रतिमेति यः स नियतं सर्वापराधच्युतः ।
च्चैतन्यामृतपूरपूर्णमहिमा शुद्धो भवन्मुच्यते ।।१९१।।
श्लोकार्थ : — [कषाय-भर-गौरवात् अलसता प्रमादः ] क षायके भारसे भारी होनेसे आलस्यका होना सो प्रमाद है, [यतः प्रमादकलितः अलसः शुद्धभावः कथं भवति ] इसलिये यह प्रमादयुक्त आलस्यभाव शुद्धभाव कैसे हो सकता है ? [अतः स्वरसनिर्भरे स्वभावे नियमितः भवन् मुनिः ] इसलिये निज रससे परिपूर्ण स्वभावमें निश्चल होनेवाला मुनि [परमशुद्धतां व्रजति ] परम शुद्धताको प्राप्त होता है [वा ] अथवा [अचिरात् मुच्यते ] शीघ्र — अल्प कालमें ही – (क र्मबन्धसे) छूट जाता है ।
भावार्थ : — प्रमाद तो कषायके गौरवसे होता है, इसलिये प्रमादीके शुद्ध भाव नहीं होता । जो मुनि उद्यमपूर्वक स्वभावमें प्रवृत्त होता है, वह शुद्ध होकर मोक्षको प्राप्त करता है ।१९०।
श्लोकार्थ : — [यः किल अशुद्धिविधायि परद्रव्यं तत् समग्रं त्यक्त्वा ] जो पुरुष वास्तवमें अशुद्धता क रनेवाले समस्त परद्रव्यको छोड़कर [स्वयं स्वद्रव्ये रतिम् एति ] स्वयं स्वद्रव्यमें लीन होता है, [सः ] वह पुरुष [नियतम् ] नियमसे [सर्व-अपराध-च्युतः ] सर्व अपराधोंसे रहित होता हुआ, [बन्ध-ध्वंसम् उपेत्य नित्यम् उदितः ] बन्धके नाशको प्राप्त होकर नित्य-उदित (सदा प्रकाशमान) होता हुआ, [स्व-ज्योतिः-अच्छ-उच्छलत्-चैतन्य-अमृत-पूर- पूर्ण-महिमा ] अपनी ज्योतिसे (आत्मस्वरूपके प्रकाशसे) निर्मलतया उछलता हुआ जो चैतन्यरूप अमृतका प्रवाह उसके द्वारा जिसकी पूर्ण महिमा है ऐसा [शुद्धः भवन् ] शुद्ध होता