Samaysar (Hindi). Kalash: 189.

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कहानजैनशास्त्रमाला ]
मोक्ष अधिकार
४५१
(वसन्ततिलका)
यत्र प्रतिक्रमणमेव विषं प्रणीतं
तत्राप्रतिक्रमणमेव सुधा कुतः स्यात्
तत्किं प्रमाद्यति जनः प्रपतन्नधोऽधः
किं नोर्ध्वमूर्ध्वमधिरोहति निष्प्रमादः
।।१८९।।
यहाँ निश्चयनयसे प्रतिक्रमणादिको विषकुम्भ कहा और अप्रतिक्रमणादिको अमृतकुम्भ
कहा, इसलिये यदि कोई विपरीत समझकर प्रतिक्रमणादिको छोड़कर प्रमादी हो जाये तो उसे
समझानेके लिए कलशरूप काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ :[यत्र प्रतिक्रमणम् एव विषं प्रणीतं ] (हे भाई !) जहाँ प्रतिक्र मणको
ही विष क हा है, [तत्र अप्रतिक्रमणम् एव सुधा कुतः स्यात् ] वहाँ अप्रतिक्र मण अमृत
क हाँसे हो सकता है ? (अर्थात् नहीं हो सक ता
) [तत् ] तब फि र [जनः अधः अधः
प्रपतन् किं प्रमाद्यति ] मनुष्य नीचे ही नीचे गिरते हुए प्रमादी क्यों होते हैं ? [निष्प्रमादः ]
निष्प्रमादी होते हुए [ऊ र्ध्वम् ऊ र्ध्वम् किं न अधिरोहति ] ऊ पर ही ऊ पर क्यों नहीं चढ़ते ?
भावार्थ :अज्ञानावस्थामें जो अप्रतिक्रमणादि होते हैं उनकी तो बात ही क्या ?
किन्तु यहाँ तो, शुभप्रवृत्तिरूप द्रव्यप्रतिक्रमणादिका पक्ष छुड़ानेके लिए उन्हें
(द्रव्यप्रतिक्रमणादिको) तो निश्चयनयकी प्रधानतासे विषकुम्भ कहा है, क्योंकि वे कर्मबन्धके
ही कारण हैं, और प्रतिक्रमण-अप्रतिक्रमणादिसे रहित ऐसी तीसरी भूमि, जो कि शुद्ध
आत्मस्वरूप है तथा प्रतिक्रमणादिसे रहित होनेसे अप्रतिक्रमणादिरूप है, उसे अमृतकुम्भ कहा
है अर्थात् वहाँके अप्रतिक्रमणादिको अमृतकुम्भ कहा है
तृतीय भूमि पर चढ़ानेके लिये
आचार्यदेवने यह उपदेश दिया है प्रतिक्रमणादिको विषकुम्भ कहनेकी बात सुनकर जो लोग
उल्टे प्रमादी होते हैं उनके सम्बन्धमें आचार्य कहते हैं कि‘यह लोग नीचे ही नीचे क्यों
गिरते हैं ? तृतीय भूमिमें ऊ पर ही ऊ पर क्यों नहीं चढ़ते ?’ जहाँ प्रतिक्रमणको विषकुम्भ कहा
है वहाँ निषेधरूप अप्रतिक्रमण ही अमृतकुम्भ हो सकता है, अज्ञानीका नहीं
इसलिये जो
अप्रतिक्रमणादि अमृतकुम्भ कहे हैं वे अज्ञानीके अप्रतिक्रमणादि नहीं जानने चाहिए, किन्तु
तीसरी भूमिके शुद्ध आत्मामय जानने चाहिए
।१८९।
अब इस अर्थको दृढ़ करता हुआ काव्य कहते हैं :