Samaysar (Hindi). Kalash: 188.

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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
अतो हताः प्रमादिनो गताः सुखासीनतां
प्रलीनं चापलमुन्मूलितमालम्बनम्
आत्मन्येवालानितं च चित्त-
मासम्पूर्णविज्ञानघनोपलब्धेः
।।१८८।।
भावार्थ :व्यवहारनयावलंबीने कहा था कि‘‘लगे हुये दोषोंका प्रतिक्रमणादि
करनेसे ही आत्मा शुद्ध होता है, तब फि र पहलेसे ही शुद्धात्माके आलम्बनका खेद करनेका
क्या प्रयोजन है ? शुद्ध होनेके बाद उसका आलम्बन होगा; पहलेसे ही आलम्बनका खेद
निष्फल है
’’ उसे आचार्य समझाते हैं किजो द्रव्यप्रतिक्रमणादि हैं वे दोषोंके मिटानेवाले
हैं, तथापि शुद्ध आत्माका स्वरूप जो कि प्रतिक्रमणादिसे रहित है उसके अवलम्बनके बिना
तो द्रव्यप्रतिक्रमणादिक दोषस्वरूप ही हैं, वे दोषोंके मिटानेमें समर्थ नहीं हैं; क्योंकि निश्चयकी
अपेक्षासे युक्त ही व्यवहारनय मोक्षमार्गमें है, केवल व्यवहारका ही पक्ष मोक्षमार्गमें नहीं है,
बन्धका ही मार्ग है
इसलिये यह कहा है किअज्ञानीके जो अप्रतिक्रमणादिक हैं सो तो
विषकुम्भ है ही, उसका तो कहना ही क्या है ? किन्तु व्यवहारचारित्रमें तो प्रतिक्रमणादिक
कहे हैं वे भी निश्चयनयसे विषकुम्भ ही हैं, क्योंकि आत्मा तो प्रतिक्रमणादिसे रहित, शुद्ध,
अप्रतिक्रमणादिस्वरूप ही है
।।३०६-३०७।।
अब इस कथनका कलशरूप काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ :[अतः ] इस क थनसे, [सुख-आसीनतां गताः ] सुखासीन (सुखसे
बैठे हुए) [प्रमादिनः ] प्रमादी जीवोंको [हताः ] हत क हा है (अर्थात् उन्हें मोक्षका सर्वथा
अनधिकारी क हा है), [चापलम् प्रलीनम् ] चापल्यका (
अविचारित कार्यका) प्रलय किया
है (अर्थात् आत्मभानसे रहित क्रियाओंको मोक्षके कारणमें नहीं माना), [आलम्बनम्
उन्मूलितम् ]
आलंबनको उखाड़ फें का है (अर्थात् सम्यग्दृष्टिके द्रव्यप्रतिक्र मण इत्यादिको भी
निश्चयसे बन्धका कारण मानकर हेय क हा है), [आसम्पूर्ण-विज्ञान-घन-उपलब्धेः ] जब तक
सम्पूर्ण विज्ञानघन आत्माकी प्राप्ति न हो तब तक [आत्मनि एव चित्तम् आलानितं च ]
(शुद्ध) आत्मारूप स्तम्भसे ही चित्तको बाँध रखा है (
अर्थात् व्यवहारके आलम्बनसे अनेक
प्रवृत्तियोंमें चित्त भ्रमण करता था, उसे शुद्ध चैतन्यमात्र आत्मामें ही लगानेको क हा है,
क्योंकि वही मोक्षका कारण है)
।१८८।