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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
(अनुष्टुभ्)
कर्तृत्वं न स्वभावोऽस्य चितो वेदयितृत्ववत् ।
अज्ञानादेव कर्तायं तदभावादकारकः ।।१९४।।
अथात्मनोऽकर्तृत्वं द्रष्टान्तपुरस्सरमाख्याति —
दवियं जं उप्पज्जइ गुणेहिं तं तेहिं जाणसु अणण्णं ।
जह कडयादीहिं दु पज्जएहिं कणयं अणण्णमिह ।।३०८।।
जीवस्साजीवस्स दु जे परिणामा दु देसिदा सुत्ते ।
तं जीवमजीवं वा तेहिमणण्णं वियाणाहि ।।३०९।।
भावार्थ : — शुद्धनयका विषय जो ज्ञानस्वरूप आत्मा है, वह कर्तृत्वभोक्तृत्वके भावोंसे
रहित है, बन्धमोक्षकी रचनासे रहित है, परद्रव्यसे और परद्रव्यके समस्त भावोंसे रहित होनेसे
शुद्ध है, निजरसके प्रवाहसे पूर्ण देदीप्यमान ज्योतिरूप है और टंकोत्कीर्ण महिमामय है । ऐसा
ज्ञानपुञ्ज आत्मा प्रगट होता है ।१९३।
अब सर्वविशुद्ध ज्ञानको प्रगट करते हैं । उसमें प्रथम, ‘आत्मा कर्ता-भोक्ताभावसे रहित
है’ इस अर्थका, आगामी गाथाओंका सूचक श्लोक कहते हैं : —
श्लोकार्थ : — [कर्तृत्वं अस्य चितः स्वभावः न ] क र्तृत्व इस चित्स्वरूप आत्माका
स्वभाव नहीं है, [वेदयितृत्ववत् ] जैसे भोक्तृत्व स्वभाव नहीं है । [अज्ञानात् एव अयं कर्ता ]
वह अज्ञानसे ही क र्ता है, [तद्-अभावात् अकारकः ] अज्ञानका अभाव होने पर अक र्ता
है ।१९४।
अब, आत्माका अकर्तृत्व दृष्टान्तपूर्वक कहते हैं : —
जो द्रव्य उपजे जिन गुणोंसे, उनसे ज्ञान अनन्य सो ।
है जगतमें कटकादि, पर्यायोंसे कनक अनन्य ज्यों ।।३०८।।
जीव-अजीवके परिणाम जो, शास्त्रों विषैं जिनवर कहे ।
वे जीव और अजीव जान, अनन्य उन परिणामसे ।।३०९।।