दर्शनज्ञानचारित्रवत्त्वेनास्याशुद्धत्वमिति चेत् —
ववहारेणुवदिस्सदि णाणिस्स चरित्त दंसणं णाणं ।
ण वि णाणं ण चरित्तं ण दंसणं जाणगो सुद्धो ।।७।।
व्यवहारेणोपदिश्यते ज्ञानिनश्चरित्रं दर्शनं ज्ञानम् ।
नापि ज्ञानं न चरित्रं न दर्शनं ज्ञायकः शुद्धः ।।७।।
कहानजैनशास्त्रमाला ]
पूर्वरंग
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सर्वथा असत्यार्थ न माना जाये; क्योंकि स्याद्वादप्रमाणसे शुद्धता और अशुद्धता — दोनों वस्तुके धर्म
हैं और वस्तुधर्म वस्तुका सत्त्व है; अन्तर मात्र इतना ही है कि अशुद्धता परद्रव्यके संयोगसे होती
है । अशुद्धनयको यहाँ हेय कहा है, क्योंकि अशुद्धनयका विषय संसार है और संसारमें आत्मा
क्लेश भोगता है; जब स्वयं परद्रव्यसे भिन्न होता है तब संसार छूटता है और क्लेश दूर होता है ।
इसप्रकार दुःख मिटानेके लिये शुद्धनयका उपदेश प्रधान है । अशुद्धनयको असत्यार्थ कहनेसे यह
न समझना चाहिए कि आकाशके फू लकी भाँति वह वस्तुधर्म सर्वथा ही नहीं है । ऐसा सर्वथा
एकान्त समझनेसे मिथ्यात्व होता है; इसलिये स्याद्वादकी शरण लेकर शुद्धनयका आलम्बन लेना
चाहिये । स्वरूपकी प्राप्ति होनेके बाद शुद्धनयका भी आलम्बन नहीं रहता । जो वस्तुस्वरूप है वह
है — यह प्रमाणदृष्टि है । इसका फल वीतरागता है । इसप्रकार निश्चय करना योग्य है ।
यहाँ, (ज्ञायकभाव) प्रमत्त-अप्रमत्त नहीं है ऐसा कहा है वहाँ गुणस्थानोंकी परिपाटीमें छट्ठे
गुणस्थान तक प्रमत्त और सातवेंसे लेकर अप्रमत्त कहलाता है । किन्तु यह सब गुणस्थान
अशुद्धनयकी कथनीमें है; शुद्धनयसे तो आत्मा ज्ञायक ही है ।।६।।
अब, प्रश्न यह होता है कि दर्शन, ज्ञान और चारित्रको आत्माका धर्म कहा गया है, किन्तु
यह तो तीन भेद हुए; और इन भेदरूप भावोंसे आत्माको अशुद्धता आती है ! इसके उत्तरस्वरूप
गाथासूत्र कहते हैं : —
चारित्र, दर्शन, ज्ञान भी, व्यवहार कहता ज्ञानिके ।
चारित्र नहिं, दर्शन नहीं, नहिं ज्ञान, ज्ञायक शुद्ध है ।।७।।
गाथार्थ : — [ज्ञानिनः ] ज्ञानीके [चरित्रं दर्शनं ज्ञानम् ] चारित्र, दर्शन, ज्ञान — यह तीन
भाव [व्यवहारेण ] व्यवहारसे [उपदिश्यते ] कहे जाते हैं; निश्चयसे [ज्ञानं अपि न ] ज्ञान भी नहीं
है, [चरित्रं न ] चारित्र भी नहीं है और [दर्शनं न ] दर्शन भी नहीं है; ज्ञानी तो एक [ज्ञायकः
शुद्धः ] शुद्ध ज्ञायक ही है ।