Samaysar (Hindi).

< Previous Page   Next Page >


Page 18 of 642
PDF/HTML Page 51 of 675

 

background image
आस्तां तावद्बन्धप्रत्ययात् ज्ञायकस्याशुद्धत्वं, दर्शनज्ञानचारित्राण्येव न विद्यन्ते; यतो
ह्यनन्तधर्मण्येकस्मिन् धर्मिण्यनिष्णातस्यान्तेवासिजनस्य तदवबोधविधायिभिः कै श्चिद्धर्मैस्तमनुशासतां
सूरिणां धर्मधर्मिणोः स्वभावतोऽभेदेऽपि व्यपदेशतो भेदमुत्पाद्य व्यवहारमात्रेणैव ज्ञानिनो दर्शनं
ज्ञानं चारित्रमित्युपदेशः
परमार्थतस्त्वेकद्रव्यनिष्पीतानन्तपर्यायतयैकं किंचिन्मिलितास्वादम-
भेदमेकस्वभावमनुभवतो न दर्शनं न ज्ञानं न चारित्रं, ज्ञायक एवैकः शुद्धः
१८
समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
टीका :इस ज्ञायक आत्माको बन्धपर्यायके निमित्तसे अशुद्धता तो दूर रहो, किन्तु
उसके दर्शन, ज्ञान, चारित्र भी विद्यमान नहीं हैं; क्योंकि अनन्त धर्मोंवाले एक धर्मीमें जो निष्णात
नहीं हैं ऐसे निकटवर्ती शिष्यजनको, धर्मीको बतलानेवाले कतिपय धर्मोंके द्वारा, उपदेश करते
हुए आचार्योंका
यद्यपि धर्म और धर्मीका स्वभावसे अभेद है तथापि नामसे भेद करके
व्यवहारमात्रसे ही ऐसा उपदेश है कि ज्ञानीके दर्शन है, ज्ञान है, चारित्र है किन्तु परमार्थसे देखा
जाये तो अनन्त पर्यायोंको एक द्रव्य पी गया होनेसे जो एक है ऐसे कुछमिले हुए
आस्वादवाले, अभेद, एकस्वभावी तत्त्वका अनुभव करनेवालेको दर्शन भी नहीं है, ज्ञान भी
नहीं है, चारित्र भी नहीं है, एक शुद्ध ज्ञायक ही है
भावार्थ :इस शुद्ध आत्माके कर्मबन्धके निमित्तसे अशुद्धता होती है, यह बात तो दूर
ही रहो, किन्तु उसके दर्शन, ज्ञान, चारित्रके भी भेद नहीं है क्योंकि वस्तु अनन्तधर्मरूप एकधर्मी
है
परन्तु व्यवहारी जन धर्मोंको ही समझते हैं, धर्मीको नहीं जानते; इसलिये वस्तुके किन्हीं
असाधारण धर्मोंको उपदेशमें लेकर अभेदरूप वस्तुमें भी धर्मोंके नामरूप भेदको उत्पन्न करके
ऐसा उपदेश दिया जाता है कि ज्ञानीके दर्शन है, ज्ञान है, चारित्र है
इसप्रकार अभेदमें भेद किया
जाता है, इसलिये वह व्यवहार है यदि परमार्थसे विचार किया जाये तो एक द्रव्य अनन्त
पर्यायोंको अभेदरूपसे पी कर बैठा है, इसलिये उसमें भेद नहीं है
यहाँ कोई कह सकता है कि पर्याय भी द्रव्यके ही भेद हैं, अवस्तु नहीं; तब फि र उन्हें
व्यवहार कैसे कहा जा सकता है ? उसका समाधान यह है : यह ठीक है, किन्तु यहाँ
द्रव्यदृष्टिसे अभेदको प्रधान करके उपदेश दिया है अभेददृष्टिमें भेदको गौण कहनेसे ही अभेद
भलीभाँति मालूम हो सकता है इसलिये भेदको गौण करके उसे व्यवहार कहा है यहाँ यह
अभिप्राय है कि भेददृष्टिमें निर्विकल्प दशा नहीं होती और सरागीके विकल्प होते रहते हैं;
इसलिये जहाँ तक रागादिक दूर नहीं हो जाते वहाँ तक भेदको गौण करके अभेदरूप निर्विकल्प
अनुभव कराया गया है
वीतराग होनेके बाद भेदाभेदरूप वस्तुका ज्ञाता हो जाता है वहाँ नयका
आलम्बन ही नहीं रहता ।।७।।