कहानजैनशास्त्रमाला ]
सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार
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केहिंचि दु पज्जएहिं विणस्सए णेव केहिंचि दु जीवो ।
जम्हा तम्हा कुव्वदि सो वा अण्णो व णेयंतो ।।३४५।।
केहिंचि दु पज्जएहिं विणस्सए णेव केहिंचि दु जीवो ।
जम्हा तम्हा वेददि सो वा अण्णो व णेयंतो ।।३४६।।
जो चेव कुणदि सो चिय ण वेदए जस्स एस सिद्धंतो ।
सो जीवो णादव्वो मिच्छादिट्ठी अणारिहदो ।।३४७।।
अण्णो करेदि अण्णो परिभुंजदि जस्स एस सिद्धंतो ।
सो जीवो णादव्वो मिच्छादिट्ठी अणारिहदो ।।३४८।।
कैश्चित्तु पर्यायैर्विनश्यति नैव कैश्चित्तु जीवः ।
यस्मात्तस्मात्करोति स वा अन्यो वा नैकान्तः ।।३४५।।
भावार्थ : — द्रव्यकी पर्यायें प्रतिक्षण नष्ट होती हैं, इसलिये बौद्ध यह मानते हैं कि
‘द्रव्य ही सर्वथा नष्ट होता है’ । ऐसी एकान्त मान्यता मिथ्या है । यदि पर्यायवान पदार्थका
ही नाश हो जाये तो पर्याय किसके आश्रयसे होगी ? इसप्रकार दोनोंके नाशका प्रसंग आनेसे
शून्यका प्रसंग आता है ।२०७।
अब, निम्नलिखित गाथाओंमें अनेकान्तको प्रगट करके क्षणिकवादका स्पष्टतया निषेध
करते हैं : —
पर्याय कुछसे नष्ट जीव, कुछसे न जीव विनष्ट है ।
इससे करै है सो हि या को अन्य — नहिं एकान्त है ।।३४५।।
पर्याय कुछसे नष्ट जीव, कुछसे न जीव विनष्ट है ।
यों जीव वेदै सो हि या को अन्य — नहिं एकान्त है ।।३४६।।
जीव जो करै वह भोगता नहिं — जिसका यह सिद्धान्त है ।
अर्हन्तके मतका नहीं सो जीव मिथ्यादृष्टि है ।।३४७।।
जीव अन्य करता, अन्य वेदे — जिसका यह सिद्धान्त है ।
अर्हन्तके मतका नहीं, सो जीव मिथ्यादृष्टि है ।।३४८।।
गाथार्थ : — [यस्मात् ] क्योंकि [जीवः ] जीव [कैश्चित् पर्यायैः तु ] कितनी ही