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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
(अनुष्टुभ्)
वृत्त्यंशभेदतोऽत्यन्तं वृत्तिमन्नाशकल्पनात् ।
अन्यः करोति भुंक्ते ऽन्य इत्येकान्तश्चकास्तु मा ।।२०७।।
क रता हुआ, [अपहरति ] दूर क रता है ।
भावार्थ : — क्षणिकवादी कर्ता-भोक्तामें भेद मानते हैं, अर्थात् वे यह मानते हैं कि —
प्रथम क्षणमें जो आत्मा था, वह दूसरे क्षणमें नहीं है । आचार्यदेव कहते हैं कि — हम उसे क्या
समझायें ? यह चैतन्य ही उसका अज्ञान दूर कर देगा — कि जो (चैतन्य) अनुभवगोचर नित्य है ।
प्रथम क्षणमें जो आत्मा था, वही द्वितीय क्षणमें कहता है कि ‘मैं जो पहले था वही हूँ’; इसप्रकारका
स्मरणपूर्वक प्रत्यभिज्ञान आत्माकी नित्यता बतलाता है । यहाँ बौद्धमती कहता है कि — ‘जो प्रथम
क्षणमें था, वही मैं दूसरे क्षणमें हूँ’ ऐसा मानना वह तो अनादिकालीन अविद्यासे भ्रम है; यह भ्रम
दूर हो तो तत्त्व सिद्ध हो, और समस्त क्लेश मिटे । उसका उत्तर देते हुये कहते हैं कि — ‘‘हे
बौद्ध ! तू यह जो तर्क ( – दलील) करता है, उस संपूर्ण तर्कको करनेवाला एक ही आत्मा है
या अनेक आत्मा हैं ? और तेरे संपूर्ण तर्कको एक ही आत्मा सुनता है ऐसा मानकर तू तर्क करता
है या संपूर्ण तर्क पूर्ण होने तक अनेक आत्मा बदल जाते हैं, ऐसा मानकर तर्क करता है ? यदि
अनेक आत्मा बदल जाते हैं, तो तेरे संपूर्ण तर्कको तो कोई आत्मा सुनता नहीं है; तब फि र तर्क
करनेका क्या प्रयोजन है ? १यों अनेक प्रकारसे विचार करने पर तुझे ज्ञात होगा कि आत्माको
क्षणिक मानकर प्रत्यभिज्ञानको भ्रम कह देना वह यथार्थ नहीं है । इसलिये यह समझना चाहिये
कि — आत्माको एकान्ततः नित्य या एकान्ततः अनित्य मानना वह दोनों भ्रम हैं, वस्तुस्वरूप नहीं;
हम (जैन) कथंचित् नित्यानित्यात्मक वस्तुस्वरूप कहते हैं वही सत्यार्थ है ।’’ ।२०६।
पुनः, क्षणिकवादका युक्ति द्वारा निषेध करता हुआ, और आगेकी गाथाओंका सूचक काव्य
कहते हैं : —
श्लोकार्थ : — [वृत्ति-अंश-भेदतः ] वृत्त्यंशोंके अर्थात् पर्यायोंके भेदके कारण [अत्यन्तं
वृत्तिमत्-नाश-कल्पनात् ] ‘वृत्तिमान् अर्थात् द्रव्य अत्यन्त (सर्वथा) नष्ट हो जाता है’ ऐसी
क ल्पनाके द्वारा [अन्यः करोति ] ‘अन्य क रता है और [अन्यः भुंक्ते ] अन्य भोगता है’ [इति
एकान्तः मा चकास्तु ] ऐसा एकान्त प्रकाशित मत क रो ।
१यदि यह कहा जाये कि ‘आत्मा नष्ट हो जाता है, किन्तु संस्कार छोड़ता जाता है’ तो यह भी यथार्थ
नहीं है; यदि आत्मा नष्ट हो जाये तो आधारके बिना संस्कार कैसे रह सकता है ? और यदि कदाचित्
एक आत्मा संस्कार छोड़ता जाये, तो भी उस आत्माके संस्कार दूसरे आत्मामें प्रविष्ट हो जायें, ऐसा
नियम न्यायसंगत नहीं है ।