Samaysar (Hindi). Kalash: 206.

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कहानजैनशास्त्रमाला ]
सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार
४८९
(मालिनी)
क्षणिकमिदमिहैकः कल्पयित्वात्मतत्त्वं
निजमनसि विधत्ते कर्तृभोक्त्रोर्विभेदम्
अपहरति विमोहं तस्य नित्यामृतौघैः
स्वयमयमभिषिंचंश्चिच्चमत्कार एव
।।२०६।।
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[च्युत-कर्तृभावम् अचलं एकं परम् ज्ञातारम् ] क र्तृत्व रहित, अचल, एक परम ज्ञाता ही
[पश्यन्तु ] देखो
भावार्थ :सांख्यमतावलम्बी पुरुषको सर्वथा एकान्तसे अकर्ता, शुद्ध उदासीन चैतन्यमात्र
मानते हैं ऐसा माननेसे पुरुषको संसारके अभावका प्रसंग आता है; और यदि प्रकृतिको संसार
माना जाये तो वह भी घटित नहीं होता, क्योंकि प्रकृति तो जड़ है, उसे सुखदुःखादिका संवेदन
नहीं है, तो उसे संसार कैसा ? ऐसे अनेक दोष एकान्त मान्यतामें आते हैं
सर्वथा एकान्त वस्तुका
स्वरूप ही नहीं है इसिलये सांख्यमती मिथ्यादृष्टि हैं; और यदि जैन भी ऐसा मानें तो वे भी
मिथ्यादृष्टि हैं इसलिये आचार्यदेव उपदेश देते हैं किसांख्यमतियोंकी भाँति जैन आत्माको
सर्वथा अकर्ता न मानें; जब तक स्व-परका भेदविज्ञान न हो तब तक तो उसे रागादिकाअपने
चेतनरूप भावकर्मोंकाकर्ता मानो, और भेदविज्ञान होनेके बाद शुद्ध विज्ञानघन, समस्त कर्तृत्वके
भावसे रहित, एक ज्ञाता ही मानो इसप्रकार एक ही आत्मामें कर्तृत्व तथा अकर्तृत्वये दोनों
भाव विवक्षावश सिद्ध होते हैं ऐसा स्याद्वाद मत जैनोंका है; और वस्तुस्वभाव भी ऐसा ही है,
कल्पना नहीं है ऐसा (स्याद्वादानुसार) माननेसे पुरुषको संसार-मोक्ष आदिकी सिद्धि होती है;
और सर्वथा एकान्त माननेसे सर्व निश्चय-व्यवहारका लोप होता है ।२०५।
आगेकी गाथाओंमें, ‘कर्ता अन्य है और भोक्ता अन्य है’ ऐसा माननेवाले क्षणिकवादी
बौद्धमतियोंको उनकी सर्वथा एकान्त मान्यतामें दूषण बतायेंगे और स्याद्वाद अनुसार जिसप्रकार
वस्तुस्वरूप अर्थात् कर्ताभोक्तापन है उसप्रकार कहेंगे
उन गाथाओंका सूचक काव्य प्रथम
कहते हैं :
श्लोकार्थ :[इह ] इस जगतमें [एकः ] कोई एक तो (अर्थात् क्षणिक वादी
बौद्धमती तो) [इदम् आत्मतत्त्वं क्षणिकम् कल्पयित्वा ] इस आत्मतत्त्वको क्षणिक क ल्पित
करके [निज-मनसि ] अपने मनमें [कर्तृ-भोक्त्रोः विभेदम् विधत्ते ] क र्ता और भोक्ताका भेद
क रते हैं (
क र्ता अन्य है और भोक्ता अन्य है, ऐसा मानते हैं); [तस्य विमोहं ] उनके
मोहको (अज्ञानको) [अयम् चित्-चमत्कारः एव स्वयम् ] यह चैतन्यचमत्कार ही स्वयं
[नित्य-अमृत-ओघैः ] नित्यतारूप अमृतके ओघ(
समूह)के द्वारा [अभिषिंचं ] अभिसिंचन