कर्तारं कलयन्तु तं किल सदा भेदावबोधादधः ।
पश्यन्तु च्युतकर्तृभावमचलं ज्ञातारमेकं परम् ।।२०५।।
इन मुनियोंकी भी ऐसी ही ऐकान्तिक मान्यता हुई । इसलिये जिनवाणी तो स्याद्वादरूप होनेसे
कहते हैं, इसलिये वाणीका कोप नहीं होता;’’ तो उनका यह कथन भी मिथ्या ही है । आत्मा
है; और जो भावकर्मरूप पर्यायें हैं उनका कर्ता तो वे मुनि कर्मको ही कहते हैं; इसलिये आत्मा
तो अकर्ता ही रहा ! तब फि र वाणीका कोप कैसे मिट गया ? इसलिये आत्माके कर्तृत्व-
अकर्तृत्वकी विवक्षाको यथार्थ मानना ही स्याद्वादको यथार्थ मानना है । आत्माके कर्तृत्व-
आत्मा सामान्य अपेक्षासे तो ज्ञानस्वभावमें ही स्थित है; परन्तु मिथ्यात्वादि भावोंको जानते समय, अनादिकालसे ज्ञेय और ज्ञानके भेदविज्ञानके अभावके कारण, ज्ञेयरूप मिथ्यात्वादि भावोंको आत्माके रूपमें जानता है, इसलिये इसप्रकार विशेष अपेक्षासे अज्ञानरूप ज्ञानपरिणामको करनेसे कर्ता है; और जब भेदविज्ञान होनेसे आत्माको ही आत्माके रूपमें जानता है, तब विशेष अपेक्षासे भी ज्ञानरूप ज्ञानपरिणाममें ही परिणमित होता हुआ मात्र ज्ञाता रहनेसे साक्षात् अकर्ता है ।।३३२ से ३४४।।
श्लोकार्थ : — [अमी आर्हताः अपि ] इस आर्हत् मतके अनुयायी अर्थात् जैन भी [पुरुषं ] आत्माको, [सांख्याः इव ] सांख्यमतियोंकी भाँति, [अकर्तारम् मा स्पृशन्तु ] (सर्वथा) अक र्ता मत मानो; [भेद-अवबोधात् अधः ] भेदज्ञान होनेसे पूर्व [तं किल ] उसे [सदा ] निरन्तर [कर्तारं कलयन्तु ] क र्ता मानो, [तु ] और [ऊ र्ध्वं ] भेदज्ञान होनेके बाद [उद्धत-बोध- धाम-नियतं स्वयं प्रत्यक्षम् एनम् ] उद्धत १ज्ञानधाममें निश्चित इस स्वयं प्रत्यक्ष आत्माको १ज्ञानधाम = ज्ञानमन्दिर; ज्ञानप्रकाश ।