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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
(शार्दूलविक्रीडित)
माऽकर्तारममी स्पृशन्तु पुरुषं सांख्या इवाप्यार्हताः
कर्तारं कलयन्तु तं किल सदा भेदावबोधादधः ।
ऊर्ध्वं तूद्धतबोधधामनियतं प्रत्यक्षमेनं स्वयं
पश्यन्तु च्युतकर्तृभावमचलं ज्ञातारमेकं परम् ।।२०५।।
कुछ प्रकृतिका कार्य मानते हैं और पुरुषको अकर्ता मानते हैं उसीप्रकार, अपनी बुद्धिके दोषसे
इन मुनियोंकी भी ऐसी ही ऐकान्तिक मान्यता हुई । इसलिये जिनवाणी तो स्याद्वादरूप होनेसे
सर्वथा एकान्तको माननेवाले उन मुनियों पर जिनवाणीका कोप अवश्य होता है । जिनवाणीके
कोपके भयसे यदि वे विवक्षाको बदलकर यह कहें कि — ‘‘भावकर्मका कर्ता कर्म है और
अपने आत्माका (अर्थात् अपनेको) कर्ता आत्मा है; इसप्रकार हम आत्माको कंथचित् कर्ता
कहते हैं, इसलिये वाणीका कोप नहीं होता;’’ तो उनका यह कथन भी मिथ्या ही है । आत्मा
द्रव्यसे नित्य है, असंख्यातप्रदेशी है, लोकपरिमाण है, इसलिये उसमें तो कुछ नवीन करना नहीं
है; और जो भावकर्मरूप पर्यायें हैं उनका कर्ता तो वे मुनि कर्मको ही कहते हैं; इसलिये आत्मा
तो अकर्ता ही रहा ! तब फि र वाणीका कोप कैसे मिट गया ? इसलिये आत्माके कर्तृत्व-
अकर्तृत्वकी विवक्षाको यथार्थ मानना ही स्याद्वादको यथार्थ मानना है । आत्माके कर्तृत्व-
अकर्तृत्वके सम्बन्धमें सत्यार्थ स्याद्वाद-प्ररूपण इसप्रकार है : —
आत्मा सामान्य अपेक्षासे तो ज्ञानस्वभावमें ही स्थित है; परन्तु मिथ्यात्वादि भावोंको जानते
समय, अनादिकालसे ज्ञेय और ज्ञानके भेदविज्ञानके अभावके कारण, ज्ञेयरूप मिथ्यात्वादि भावोंको
आत्माके रूपमें जानता है, इसलिये इसप्रकार विशेष अपेक्षासे अज्ञानरूप ज्ञानपरिणामको करनेसे
कर्ता है; और जब भेदविज्ञान होनेसे आत्माको ही आत्माके रूपमें जानता है, तब विशेष अपेक्षासे
भी ज्ञानरूप ज्ञानपरिणाममें ही परिणमित होता हुआ मात्र ज्ञाता रहनेसे साक्षात् अकर्ता
है ।।३३२ से ३४४।।
अब, इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं : —
श्लोकार्थ : — [अमी आर्हताः अपि ] इस आर्हत् मतके अनुयायी अर्थात् जैन भी
[पुरुषं ] आत्माको, [सांख्याः इव ] सांख्यमतियोंकी भाँति, [अकर्तारम् मा स्पृशन्तु ] (सर्वथा)
अक र्ता मत मानो; [भेद-अवबोधात् अधः ] भेदज्ञान होनेसे पूर्व [तं किल ] उसे [सदा ]
निरन्तर [कर्तारं कलयन्तु ] क र्ता मानो, [तु ] और [ऊ र्ध्वं ] भेदज्ञान होनेके बाद [उद्धत-बोध-
धाम-नियतं स्वयं प्रत्यक्षम् एनम् ] उद्धत १ज्ञानधाममें निश्चित इस स्वयं प्रत्यक्ष आत्माको
१ज्ञानधाम = ज्ञानमन्दिर; ज्ञानप्रकाश ।