कहानजैनशास्त्रमाला ]
सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार
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तिष्ठति, तथा तिष्ठंश्च ज्ञायककर्तृत्वयोरत्यन्तविरुद्धत्वान्मिथ्यात्वादिभावानां न कर्ता
भवति, भवन्ति च मिथ्यात्वादिभावाः, ततस्तेषां कर्मैव कर्तृ प्ररूप्यत इति वासनोन्मेषः
स तु नितरामात्मात्मानं करोतीत्यभ्युपगममुपहन्त्येव ।
ततो ज्ञायकस्य भावस्य सामान्यापेक्षया ज्ञानस्वभावावस्थितत्वेऽपि कर्मजानां
मिथ्यात्वादिभावानां ज्ञानसमयेऽनादिज्ञेयज्ञानभेदविज्ञानशून्यत्वात् परमात्मेति जानतो विशेषापेक्षया
त्वज्ञानरूपस्य ज्ञानपरिणामस्य करणात्कर्तृत्वमनुमन्तव्यं; तावद्यावत्तदादिज्ञेयज्ञानभेदविज्ञान-
पूर्णत्वादात्मानमेवात्मेति जानतो विशेषापेक्षयापि ज्ञानरूपेणैव ज्ञानपरिणामेन परिणममानस्य केवलं
ज्ञातृत्वात्साक्षादकर्तृत्वं स्यात् ।
मिथ्यात्वादि भावोंका कर्ता नहीं होता; और मिथ्यात्वादि भाव तो होते हैं; इसलिये उनका कर्ता
कर्म ही है, इसप्रकार प्ररूपित किया जाता है’’ — ऐसी जो वासना (अभिप्राय, झुकाव) प्रगट
की जाती है वह भी ‘आत्माको करता है’ इस (पूर्वोक्त) मान्यताका अतिशयतापूर्वक घात करती
ही है (क्योंकि सदा ही ज्ञायक माननेसे आत्मा अकर्ता ही सिद्ध हुआ) ।
इसलिये, ज्ञायक भाव सामान्य अपेक्षासे ज्ञानस्वभावसे अवस्थित होने पर भी, कर्मसे
उत्पन्न मिथ्यात्वादि भावोंके ज्ञानके समय, अनादिकालसे ज्ञेय और ज्ञानके भेदविज्ञानसे शून्य
होनेसे, परको आत्माके रूपमें जानता हुआ वह (ज्ञायकभाव) विशेष अपेक्षासे अज्ञानरूप
ज्ञानपरिणामको करता है ( – अज्ञानरूप ऐसा जो ज्ञानका परिणमन उसको करता है) इसलिये,
उसके कर्तृत्वको स्वीकार करना (अर्थात् ऐसा स्वीकार करना कि वह कर्त्ता है) वह भी तब
तक की जब तक भेदविज्ञानके प्रारम्भसे ज्ञेय और ज्ञानके भेदविज्ञानसे पूर्ण (अर्थात् भेदविज्ञान
सहित) होनेके कारण आत्माको ही आत्माके रूपमें जानता हुआ वह (ज्ञायकभाव), विशेष
अपेक्षासे भी ज्ञानरूप ही ज्ञानपरिणामसे परिणमित होता हुआ ( – ज्ञानरूप ऐसा जो ज्ञानका
परिणमन उसरूप ही परिणमित होता हुआ), मात्र ज्ञातृत्वके कारण साक्षात् अकर्ता हो ।
भावार्थ : — कितने ही जैन मुनि भी स्याद्वाद-वाणीको भलीभाँति न समझकर सर्वथा
एकान्तका अभिप्राय करते हैं और विवक्षाको बदलकर यह कहते हैं कि — ‘‘आत्मा तो
भावकर्मका अकर्ता ही है, कर्मप्रकृतिका उदय ही भावकर्मको करता है; अज्ञान, ज्ञान, सोना,
जागना, सुख, दुःख, मिथ्यात्व, असंयम, चार गतियोंमें भ्रमण — इन सबको, तथा जो कुछ
शुभ-अशुभ भाव हैं इन सबको कर्म ही करता है; जीव तो अकर्ता है ।’’ और वे मुनि शास्त्रका
भी ऐसा ही अर्थ करते हैं कि — ‘‘वेदके उदयसे स्त्री-पुरुषका विकार होता है और उपघात
तथा परघात प्रकृतिके उदयसे परस्पर घात होता है ।’’ इसप्रकार, जैसे सांख्यमतावलम्बी सब