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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
कर्तृत्वाभ्युपगमेन सर्वेषामेव जीवानामेकान्तेनाकर्तृत्वापत्तेः जीवः कर्तेति श्रुतेः कोपो दुःशक्यः
परिहर्तुम् । यस्तु कर्म आत्मनोऽज्ञानादिसर्वभावान् पर्यायरूपान् करोति, आत्मा त्वात्मानमेवैकं
द्रव्यरूपं करोति, ततो जीवः कर्तेति श्रुतिकोपो न भवतीत्यभिप्रायः स मिथ्यैव । जीवो
हि द्रव्यरूपेण तावन्नित्योऽसंख्येयप्रदेशो लोकपरिमाणश्च । तत्र न तावन्नित्यस्य कार्यत्वमुप-
पन्नं, कृतकत्वनित्यत्वयोरेकत्वविरोधात् । न चावस्थितासंख्येयप्रदेशस्यैकस्य पुद्गलस्कन्धस्येव
प्रदेशप्रक्षेपणाकर्षणद्वारेणापि तस्य कार्यत्वं, प्रदेशप्रक्षेपणाकर्षणे सति तस्यैकत्वव्याघातात् । न
चापि सकललोकवास्तुविस्तारपरिमितनियतनिजाभोगसंग्रहस्य प्रदेशसंकोचनविकाशनद्वारेण तस्य
कार्यत्वं, प्रदेशसंकोचनविकाशनयोरपि शुष्कार्द्रचर्मवत्प्रतिनियतनिजविस्ताराद्धीनाधिकस्य तस्य
कर्तुमशक्यत्वात् । यस्तु वस्तुस्वभावस्य सर्वथापोढुमशक्यत्वात् ज्ञायको भावो ज्ञानस्वभावेन सर्वदैव
कर्ता है’ ऐसी जो श्रुति है उसका कोप दूर करना अशक्य हो जाता है (अर्थात् भगवानकी
वाणीकी विराधना होती है) । और, ‘कर्म आत्माके अज्ञानादि सर्व भावोंको — जो कि पर्यायरूप
हैं उन्हें — करता है, और आत्मा तो आत्माको ही एकको द्रव्यरूपको करता है, इसलिये जीव
कर्ता है; इसप्रकार श्रुतिका कोप नहीं होता’ — ऐसा जो अभिप्राय है वह मिथ्या ही है । (इसीको
समझाते हैं : — ) जीव तो द्रव्यरूपसे नित्य है, असंख्यातप्रदेशी है और लोकपरिमाण है । उनमें
प्रथम, नित्यका कार्यत्व नहीं बन सकता, क्योंकि कृतकत्वके और नित्यत्वके एकत्वका विरोध
है । (आत्मा नित्य है, इसलिये वह कृतक अर्थात् किसीके द्वारा किया गया नहीं हो सकता ।)
और अवस्थित असंख्य-प्रदेशवाले एक(-आत्मा)को पुद्गलस्कन्धकी भाँति, प्रदेशोंके प्रक्षेपण-
आकर्षण द्वारा भी कार्यत्व नहीं बन सकता, क्योंकि प्रदेशोंका प्रक्षेपण तथा आकर्षण हो तो
उसके एकत्वका व्याघात हो जायेगा । (स्कन्ध अनेक परमाणुओंका बना हुआ है, इसलिये
उसमेंसे परमाणु निकल जाते हैं तथा उसमें आते भी हैं; परन्तु आत्मा निश्चित असंख्यात-
प्रदेशवाला एक ही द्रव्य है, इसलिये वह अपने प्रदेशोंको निकाल नहीं सकता तथा अधिक
प्रदेशोंको ले नहीं सकता ।) और सकल लोकरूप घरके विस्तारसे परिमित जिसका निश्चित निज
विस्तारसंग्रह है (अर्थात् जिसका लोक जितना निश्चित माप है) उसके (-आत्माके) प्रदेशोंके
संकोच-विकास द्वारा भी कार्यत्व नहीं बन सकता, क्योंकि प्रदेशोंके संकोच-विस्तार होने पर भी,
सूखे-गीले चमड़ेकी भाँति, निश्चित निज विस्तारके कारण उसे ( – आत्माको) हीनाधिक नहीं
किया जा सकता । (इसप्रकार आत्माके द्रव्यरूप आत्माके कर्तृत्व नहीं बन सकता ।) और,
‘‘वस्तुस्वभावका सर्वथा मिटना अशक्य होनेसे ज्ञायक भाव ज्ञानस्वभावसे ही सदैव स्थित रहता
है और इसप्रकार स्थित रहता हुआ, ज्ञायकत्व और कर्तृत्वके अत्यन्त विरुद्धता होनेसे,