कहानजैनशास्त्रमाला ]
सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार
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करोति, चारित्रमोहाख्यकर्मोदयमन्तरेण तदनुपपत्तेः । कर्मैवोर्ध्वाधस्तिर्यग्लोकं भ्रमयति,
आनुपूर्व्याख्यकर्मोदयमन्तरेण तदनुपपत्तेः । अपरमपि यद्यावत्किंचिच्छुभाशुभं तत्तावत्सकलमपि
कर्मैव करोति, प्रशस्ताप्रशस्तरागाख्यकर्मोदयमन्तरेण तदनुपपत्तेः । यत एवं समस्तमपि स्वतन्त्रं
कर्म करोति, कर्म ददाति, कर्म हरति च, ततः सर्व एव जीवाः नित्यमेवैकान्तेनाकर्तार एवेति
निश्चिनुमः । किंच – श्रुतिरप्येनमर्थमाह, पुंवेदाख्यं कर्म स्त्रियमभिलषति, स्त्रीवेदाख्यं कर्म
पुमांसमभिलषति इति वाक्येन कर्मण एव कर्माभिलाषकर्तृत्वसमर्थनेन जीवस्याब्रह्मकर्तृत्व-
प्रतिषेधात्, तथा यत्परं हन्ति, येन च परेण हन्यते तत्परघातकर्मेति वाक्येन कर्मण एव
कर्मघातकर्तृत्वसमर्थनेन जीवस्य घातकर्तृत्वप्रतिषेधाच्च सर्वथैवाकर्तृत्वज्ञापनात् । एवमीद्रशं
सांख्यसमयं स्वप्रज्ञापराधेन सूत्रार्थमबुध्यमानाः केचिच्छ्रमणाभासाः प्ररूपयन्ति; तेषां प्रकृतेरेकान्तेन
१श्रमणाभास = मुनिके गुण नहीं होने पर भी अपनेको मुनि कहलानेवाले
ही दुःखी करता है, क्योंकि असातावेदनीय नामक कर्मके उदयके बिना उसकी अनुपपत्ति है;
कर्म ही मिथ्यादृष्टि करता है, क्योंकि मिथ्यात्वकर्मके उदयके बिना उसकी अनुपपत्ति है; कर्म
ही असंयमी करता है, क्योंकि चारित्रमोह नामक कर्मके उदयके बिना उसकी अनुपपत्ति है;
कर्म ही ऊ र्ध्वलोकमें, अधोलोकमें और तिर्यग्लोकमें भ्रमण कराता है, क्योंकि आनुपूर्वी नामक
कर्मके उदयके बिना उसकी अनुपपत्ति है; दूसरा भी जो कुछ जितना शुभ – अशुभ है वह सब
कर्म ही करता है, क्योंकि प्रशस्त-अप्रशस्त राग नामक कर्मके उदयके बिना उनकी अनुपपत्ति
है । इसप्रकार सब कुछ स्वतन्त्रतया कर्म ही करता है, कर्म ही देता है, कर्म ही हर लेता है,
इसलिये हम यह निश्चय करते हैं कि — सभी जीव सदा ही एकान्तसे अकर्ता ही हैं । और श्रुति
(भगवानकी वाणी, शास्त्र) भी इसी अर्थको कहती है; क्योंकि, (वह श्रुति) ‘पुरुषवेद नामक
कर्म स्त्रीकी अभिलाषा करता है और स्त्रीवेद नामक कर्म पुरुषकी अभिलाषा करता है’ इस
वाक्यसे कर्मको ही कर्मकी अभिलाषाके कर्तृत्वके समर्थन द्वारा जीवको अब्रह्मचर्यके कर्तृत्वका
निषेध करती है, तथा ‘जो परको हनता है और जो परके द्वारा हना जाता है वह परघातकर्म
है’ इस वाक्यसे कर्मको ही कर्मके घातका कर्तृत्व होनेके समर्थन द्वारा जीवको घातके
कर्तृत्वका निषेध करती है, और इसप्रकार (अब्रह्मचर्यके तथा घातके कर्तृत्वके निषेध द्वारा)
जीवका सर्वथा अकर्तृत्व बतलाती है ।’’
(आचार्यदेव कहते हैं कि : — ) इसप्रकार ऐसे सांख्यमतको, अपनी प्रज्ञा(बुद्धि)के
अपराधसे सूत्रके अर्थको न जाननेवाले कुछ १श्रमणाभास प्ररूपित करते हैं; उनकी, एकान्तसे
प्रकृतिके कर्तृत्वकी मान्यतासे, समस्त जीवोंके एकान्तसे अकर्तृत्व आ जाता है, इसलिये ‘जीव